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________________ * ATARAKHKA R +++KA* ३६४ वृहज्जैनवाणीसंग्रह समेत । दलित वसथावर मरनखेत ॥११॥ जे क्रिया * तिन्हें जानहु कुधर्म । तिन सरधै जीव लहै अशर्म ॥ याकौं गृहीतमिथ्यात जान । अब सुन गृहीत जो है कुज्ञान । ॥१२॥ एकांतवाद दूषित समस्त । विषयादिकपोषक अप शस्त । कपिलादिरचित श्रुतको अभ्यास। सो है कुबोध । बहु देन त्रास ॥१३॥ जो ख्यातिलाभ पूजादि चाह । धरि । करत विविधविध देहदाह । आतम अनात्मके ज्ञानहीन।। जे जे करनी तनकरनछीन ॥३॥ ते सव मिथ्याचारित्र । त्यागि । अब आतमके हितपंथ लागि ॥ जगजालनमन-1 को देय त्यागि । अब दौलत, निज आतम सुपागि ॥ १५॥ तीसरी ढाल । नरेंद्रछंद (जोगीरासा। आतमको हित है सुख सो सुख आकुलता विन कहिये ।। आकुलता शिवमाहिं न तातै, शिवमग लायो चहिये। सम्य कदर्शन ज्ञान चरन शिव, मग सो दुविध विचारो । जो * सत्यास्थरूप सु निश्चय, कारन सो व्यवहारो॥१॥ परद्र व्यनि भिन्न आपमें रुचि, सम्यक्त भला है । आप रूपको। में जानपनो, सो सम्यकज्ञानकला है। आपरूपमें लीन रहै । थिर, सम्यकचारित सोई। अब व्यवहार मोखमग सुनिये, हेतु नियतको होई ॥ २॥ जीव अनीव तत्व अरु आत्रव, * बंध रु संवर जानो। निजर मोक्ष कहे जिन तिनको, ज्योंको * त्यों सरधनो ॥ है सोई समकित व्यवहारी, अब इन रूप है । बखानौ । तिनको सुनि सामान्यविशेषै, दृढ़ प्रतीत उर आनौ ।
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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