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________________ vvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvv KRISHNA वृहज्जैनवाणीसंग्रह । मरण ॥ तातें इनको तजिये सुजान । सुन तिन संछेप कहूं। बखान ।।१।। जीवादि प्रयोजनभूत तत्त्व । साथै तिनमाहि । विपर्ययत्व ॥ चेतनको है उपयोगरूप । विन मूरति चिन मूरति अनूप ॥ पुदगल नभ धर्म अधर्मकाल । इनतै 'न्यारी । । है जीवचाल । ताको न जान विपरीत मान करि, कर * देहमें निज पिछान ॥३॥ मैं सुखी दुखी मैं रंक राव। मेरो धन * गृह गोधन प्रभाव ।। मेरे सुत तिय मैं सबल दीन । बे रूप सुभग मूरख प्रवीन ॥४॥ तन उपजत अपनी उपज जानि । तन नशत आपको नाश मान ॥ रागादि प्रगट जे दुःखदैन।। तिनहीको सेवत गिनहि चैन । शुभअशुभबंधके फलमंझार। क रति रति करै निजपद विसार । आतमहितहेतु विराग ज्ञान। ते लख आपको कष्टदान ॥ ६॥ रोकी न चाह निजशक्ति खोय। शिवरूप निराकुलता न जोय । याही प्रतीतजुत कछुक ज्ञान । सो दुखदायक अज्ञान जान ॥ ७॥ इनजुत । विषयनिमें जो प्रवृत्त । ताको जानो मिथ्याचरित्त ।। या । मिथ्यात्यादि निसर्ग जेह । अब जे गृहीत सुनिये सु तेह ॥ जो कुगुरु कुदेव कुधर्म सेव । पोर्षे चिर दर्शन मोह एत्र ॥ अंतररागादिक धरै जेह । बाहर धन अन्तरर्ते सनेह ॥९॥ * धारै कुलिंग लहि महतभाव । ते कुगुरु जनमजल। * उपलनाव । जे रागरोषमलकरि मलीन' । 'बनिताग* दादिजुत चिन्हचीन ॥ १०॥ते हैं कुदेव तिनकी जु सेव ।। शठ करत न तिन भवभ्रमनछेव ॥ रागादिभाव हिंसा
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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