SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 212
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * RK- ---- * २७० वृहज्जैनवाणीसंग्रह * मृदुत्वं सर्वभूतेषु कार्य जीवेन सर्वदा । * काठिन्यं त्यज्यते नित्यं धर्मबुद्धिं विजानता ॥ २ ॥ ___ओं 'ही परब्रह्मणे उत्तममार्दवधर्मा गाय जलाधा निर्व०॥ * मद्दव भवमद्दणु माणणिकंदणु दयधम्म जु मूल हुई विमलु । सव्वह हिययारउ गुनजनसारउ तिस उचऊ संजम * सयलु ॥ मद्दउ माणकसाय विहंडणु, मद्दउ पंचेंदियमण दंडणु।। मद्दउ धम्मइकरुणावल्ली, पसरइ चित्तमहीरुहवल्ली ॥२॥ * मद्दउ जिनवर भत्तिपयासइ, महउ कुमइपसरु णिण्णासइ । * मद्दवेण बहुविणय पवट्टइ मद्दवेण जणवइरी हहइ ॥ ३ ॥ मद्दवेण परिणामविसुद्धी, महवेण विहु लोयह सिद्धी ।। है मद्दवेण दोविह तब सोहइ, महवेण तीजो पर मोइइ ॥ मद्दड जिणसासण जाणिज्जइ, अप्पापर सरूव मासिज्जा। मद्दउ दोस असेस णिचारउ, मद्दउ जणणसमुद्दह तारउ॥ पत्ता-सम्मइंसण अंगु मद्दउपरिणाम जु मुणहु । ____ हय परियाण विचित्त मद्दउ धम्म अमल थुणहु ॥६॥ __ओं ही उत्तममार्दवधर्मा गाय निर्गपामीति स्वाहा । आर्यत्वं क्रियते सम्यक् दुष्टबुद्धिश्च त्यज्यते । पापचिंता न कर्त्तव्या श्रावकैर्धर्मचिंतकैः ॥३॥ ___ओं ही परमब्रह्मणे आर्जवर्मागाय जलाद्य निर्वपामीति स्वाहा । । धम्मह वरलक्खणु अजउ थिरमणु, दुरियविहंडणु सुहज* गणु । तं इत्थु जि किज्जह तं पालिज्जइ,तं णि सुणिजइ खय जणणु ॥ जारिसु णिजयचित्त चिंतिजइ, तारिसु अण्णहु पुण। • भासिज्जइ । किजइ पुण तारिसु सुहसंचणु, तं अजवगुण मुणहु । *22--5-MS REx
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy