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________________ बृहज्जैनवाणीसंग्रह अवंचणु ॥२॥ मायासल्ल मणहु णीसारहु, अज्जउ धम्म पवित्त वियारहु । वर तर मायावियउ णिरत्थर, अज्जउ सित्रपुर पंथ सउत्थउ || ३ || जत्थ कुटिलपरिणाम चइज्जह, तहि अज्जउ धम्मजु संपज्जइ । दंसणपाणसरूव अखंडो, परम अतींदिय सुक्खकरंडो ॥ ४ ॥ अप्पे अप्पर भवहतरंडो, एरिसु चेयणभावपयंडो । सो पुण अज्जउ धम्मे लब्भइ, अज्जवेण वैरियमण खुब्भइ ॥ ५ ॥ घत्ता - अज्जउ परमप्पड गयसंकप्पउ चिम्मितु सासय अभयपऊ । तं णिरुजाइज्जइ संसउ हिज्जह, पाविज्जइ जिहि अचलपऊ || ६ || व्यों ह्रीं उत्तमाजवधर्मा गायार्थं निर्वपामीति स्वाहा ॥ असत्यं सर्वथा त्याज्यं दुष्टवाक्यं च सर्वदा । परनिंदा न कर्तव्या भव्येनापि च सर्वदा ॥ ४ ॥ ओं ह्रीं परमब्रह्मणे उत्तमसत्यधर्मा गाय जलाद्यर्घ निर्वपामीति स्वाहा । २७१ wwwww दयधम्भहु कारण दोसणिवारण, इहभवपरभव सुक्खयरू | सच्चुजि वयणुल्लउ भुवणिअतुल्लउ, बोलिज्जइ वीसासयरू ॥ १ ॥ सच्चु जि सव्वह धम्मपहाणु, सच्चु जि महियलगरुवविहाण | सच्चु जि संसारसमुद्दसेउ, सच्चु जि भव्वह मण सुक्खहेउ || २ || सच्चेण जि सोहह मणुवजम्मु, सच्चेण पवित्र पुण्णकम्म। सच्चेण सयल गुणगण सहंति, सच्चेण तियस सेवा वहति ॥ सच्चेण अणुव्वमहव्ययाइ, सच्चेण विणासिय आवयाइ । हियमिय भासिज्ज‍
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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