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________________ ** * व वृहज्जैनवाणीसंग्रह २८७ । अच्छर शुद्ध अरथ पहिचानो, अच्छर अरथ उभय संग जानौं।' ___जानौं सुकालपठन जिनागम, नाम गुरु न छिपाइये। ___ तपरीति गहि बहु मान देक, विनयगुन चित लाइये ॥ ये आठ भेद करम उछेदक, ज्ञान-दर्पन देखना। ___इस ज्ञानहीसों भरत सीझा, और सब पटपेखना ॥२॥ ओं ही अष्टविधसम्यग्ज्ञानाथ पूर्णायं निर्वपामीति स्वाहा ॥२॥ ___ चारित्रपूजा। दोहा-विषयरोग औषध महा, दवकषायजलधार । तीर्थकर जाकौं धरै, सम्यकचारितभार ॥१॥ *ओं ही त्रयोदशविधसम्यक्चारित्र ! अब अवतर अवतर संौपट् । ओं है ही त्रयोदशविधसम्यक्चारित्र ! अन्न तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः ।ओं ही त्रयोदश• विधसम्यक्चारित्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। सोरठा-नीर सुगंध अपार, त्रिषा हर मल छय करै। सम्यकचारितसार, तेरहविध पूजौं सदा ॥ १॥ * ओं ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय जलं निवेपामीति स्वाहा ॥१॥ जल केशर घनसार, ताप हैरै शीतल करै । सम्यक०॥चंदन॥ अछत अनूप निहार,दारिद नाशै सुख भरै । सम्य०॥अक्षताना पहुपसुवास उदार, खेद हरै मन शुचि करै । सम्य०॥पुष्पा * नेवज विविधमकार, छुधा हरै थिरता करै । सम्एक०॥नैवेद्य।। * दीपजोति तमहार, घटपट परकाशै महा। सम्यक०॥ दीप धूप घान सुखकार, रोग विधन जड़ता हरै । सम्य०॥धूप । श्रीफल आदि विथार, निहचै सुरशिवफल करै। सम्याफलं. * - - *
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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