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________________ वृहज्जैनवाणीसंग्रह ~ ~ ~ - - ~ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwww जल गंधाक्षत चार, दीप धूप फल फूल चरु । सम्यक०॥अर्थ।। अथ जयमाला। दोहा-आप आप थिर नियत नय, तपसंजम व्योहार । ___स्वपर दया दोनों लिये, तेरहविध दुखहार ॥१॥ चौपाई-मिश्रित गीताछंद। * सम्यकचारित रतन संभालौ, पांच पाप तजिकै व्रत पालौ।। । पंचसमिति त्रय गुपति गहीजै,नरभव सफल करहु तन छीजै। ___ छीजै सदा तनको जतन यह, एक संजम पालिये। बहु रुल्यो नरक निगोदमाही, विषयकपायनि टालिये। शुभकरम जोग सुघाट आया, पार हो दिन जात है। । ___ 'द्यानत' धरमकी नाव बैठो, शिवपुरी कुशलात है ॥२॥ * ओं ही त्रयोदशबिधसम्यक्चारित्राय महाधु निर्वपामीति स्वाहा ॥३॥ अथ समुच्चय जयमाला। दोहा-सम्यकदरशन-ज्ञान-व्रत, इन विन मुकति न होय । ___अंध पंगु अरु आलसी, जुदे जलै दव-लोय ॥१॥ चौपाई-जापै ध्यान सुथिर बन आवै । ताके करमबंध कट • जावै । तासों शिवतिय प्रीति वढावै । जो सम्यकरतनत्रय ध्यावै ॥१॥ ताको चहुँगतिके दुख नाहीं। सोन पर भवसागरमाहीं ॥ जनमजरामृतु दोष मिटावै । जो सम्यकरतनत्रय ध्यावै ॥३॥ सोई दशलच्छनको साधै । सो सोलह । कारण आराधै । सो परमातम-पद उपजावै । जो सम्यकरतनत्रय ध्यावै ॥४॥ सोई शकचक्रिपद लेई । तीनलोकके
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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