________________
वृहज्जैनवाणीसंग्रह
૨૮૧
सुख विलसेई || सो. रागादिक भाव बहावै । जोसम्यकरतन - त्रय ध्यावै ॥ सोई लोकालोक निहारै परमानंददशा विसतारै ।। आप तिरै औरन तिरखावै । जो सम्यकरतनेत्रय ध्यावै ॥ दोहा - एकस्वरूप प्रकाश निज, वचन कह्यो नहिं जाय । तीन भेद व्योहार सब द्यानतको सुखदाय ॥
i
ओं ह्रीं सम्यग्दर्शनसम्यग् ज्ञानसम्यक् चारित्राय महाष्यं निर्वपामीति० ॥ (अधेके बाद विसर्जन करना चाहिये ) १११ - समुच्चयचौबीसी पूजा
वृषभ अजित संभव अभिनंदन, सुमति पदम सुपास जिनराय | चंद पुहुप शीतल श्रियांस नमि, वासुपूज पूजितसुरराय || विमल अनंत धर्मजस उज्जल, शांति कुंथु अर मल्लि मनाय । मुनिसुव्रत नमि नेमि पासप्रभु, वर्द्धमानपद पुष्प चढ़ाय ओं ह्रीं श्रीवृषभादिमहावीरांतचतुर्विंशतिजिनसमूह ! अत्र अवतर अवतर । संवौषट् ओं ह्रीं श्रीवृषभादिवीरांतचतुर्विंशतिजिनसमूह ! अन्न तिष्ठ । ठः ठः। ओं ह्रीं श्रीवृषभादिवीरांतचतुर्विंशतिजिनसमूह अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
'मुनिमनसम उज्वल नीर, प्रासुक गंध भरा। भरि कनक कटोरी धीर, दीनी धार धरा ॥ चैौबीसों श्रीजिनचंद, आनंदकंद, सही । पद जेजत हरत भवनंद, पावत मोक्षमही ॥ ओं ह्रीं श्रीवृषभादिवीरांतेभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशानाय जलं० ॥ गोशीर कपूर मिलाय, केशर रंगभरी । जितचरनन देत चढाय, भवआंताप हरी || चौबी● || चंदनं ॥
19
a