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________________ *AKRAKAKKRSS WAAAAAAAARAHMA ArranArenamARA १६० हज्जैनवाणीसंग्रह निरमल सुरगिरिके तट, झरना झमकि झराहीं ॥१६॥ प्रभु-ई * तन-श्रीभामंडलकी दुति, अद्भुत तेज विराजै । जाकी । * दीप्ति मनोहर आगैं, कोटि दिवाकर लाजै ॥ दिव्य वचन । सब भाषा गर्भित, खिरहिं त्रिकाल सुवानी । 'आसा' आस । कर सो पूरण, श्रीपारस सुखदानी ॥१४॥ सुर नर जिय। तिरजंच घनेरे, जिनवंदन चित आने । वैरभावपरिहार निरंतर प्रीति परस्पर ठानें ।। दशहूं दिश निरमल अति दीखें, भयो है शोभ घनेरा । स्वच्छसरोवरजलकर पूरे, वृक्ष फरे । * चहुँ फेरा ॥ साली आदिक खेती चहुँदिश, भई स्वमेव घनेरी । जीवनवध नहिं होय कदाचित, यह अतिशय प्रभुकेरी । नख अरु केश बडै नहिं प्रभुके, नहिं नैनन टभकारे। ई * दर्पणवत प्रभुको तन दीपै, आनन चार निहारे॥१६॥ । इन्द्र नरेन्द्र धनेन्द्र सबै मिलि, धर्मामृत अभिलाषी । गण* घरपदशिरनाय सुरासुर, प्रभुकी थुति अतिलाषी ॥ दीन- 1 दयाल कृपाल दयानिधि, त्रिषावंत भवि चीन्हें । धर्मामृत । वर्षाय जिनेश्वर, तोषित बहुविध कीन्हें ॥ १७॥ आरजखंडविहार जिनेश्वर, कीनो भविहितकारी । धर्मचक्र । आगौनि चलै प्रभु, केवल महिमा भारी॥ पंद्रह पांति । * कमल पंद्रह जुग सुंदर हेम सम्हारे । अंतरीछ डग सहित, खलै प्रभु चरणांबुजतल धारे ॥ १८ ॥ मिटि उपसर्ग भये प्रभु केवलि, भूमि पवित्र सुहाई । सो अहिक्षेत्र थप्यो सुरनर । मिल, पूजककों सुखदाई ॥ नाम लेत सब विघन विनाश ।
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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