________________
*
-*
-
*-
*
*
wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwroom
घृहज्जैनवाणीसंग्रह १५६ ॥ क रचना कारण, सुरपति आज्ञा दीनी। मणिमुक्ता हीराकंचनमय, धनपति रचना कीनी ॥ ७॥ तीनों कोट रचे
मणिमंडित, धूलीसाल बनाई । गोपुर तुंग अनूप विराजै, * मणिमय गहरी खाई ।। सरवर सजल मनोहर सोहैं, वन उपवनकी शोभा । वापी विविध विचित्र बिलोकत, सुरनर ।
खगमन लोभा ॥८॥ खे देद गलिनमै घटभरि धूपसुगंध । सुहाई। मंद सुगंध भतापपवनवश, दशहूं दिशिमैं छाई ॥
गरुड़ादिकके चिह्न अलंकृत धुज चहुंओर विराजें। तोरन* वंदनवारी सोहैं, नवनिधिकी छवि छाजै ॥९॥ देवीदेव खड़े 1 दरवानी, देखि बहुत सुख पावै । सम्यकवंत महाश्रद्धानी,
भविसों प्रीति बढावै ॥ तीन कोटिके मध्य जिनेश्वर, गंध* कुटी सुखदाई । अंतरीक्षसिंहासनऊपर, राज त्रिभुवनराई ।
॥१०॥ मणिमय तीन सिंहासन सोमा, वरणत पार न पाऊं। प्रभुके चरणकमलतल सोमैं, मनमोदित शिर नाऊं। चंद्रकांतिसमदीप्ति मनोहर, तीन छत्रछवि आखी। तीनभुवन-1
ईश्वरताके हैं, मानों वे सव साखी ॥ दुंदुमि शब्द गहिर । * अति वाजै, उपमा बरणी न जाई । तीनभुवन जीवन प्रति । * भाई, जयघोषण सुखदाई ॥ कलपतरूवर पुष्प सुगंधित, * गंधोदककी वर्षा । देवीदेव करें निशवासर, भविजीवनमन । हर्षा ॥१२॥ तरु अशोककी उपमा वरणत, भविजन पार न
पा । रोग वियोगदुखीजन दर्शत, तुरतहि शोक नशा ।। * कुंदपुहुपसम श्वेत मनोहर, चौसठि चमर दुराहीं। मानों