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________________ १३० , वृहज्जैनवाणीसंग्रह सदा प्रियदास तिहारे || तुमवचनामृतपान भक्ति अंजुलि सों पीवै । तिन्हें भयानक क्रूररोगरिषु कैसे छी ||८|| मानथंभ पाषान आन पाषान पटंतर । ऐसे और अनेक रतन दीखें जगअंतर || देखत दृष्टिप्रमान मानमद तुरत मिटावै । जो तुम निकट न होय शक्ति यह क्योंकर पावै ॥ ९ ॥ प्रभुतन पर्वतपरस पवन उरमें निवहै है । तासों ततछिन सकल रोगरज वाहिर है है । जाके ध्यानाहूत बसो उर अंबुज माहीं । कौन जगत उपकारकरन समरथ सो नाहीं ॥ १० ॥ जनम जनमके दुःख सहे सब ते तुम जानो । याद किये मुझ हिये लगै आयुधसे मानों । तुम दयाल जगपाल स्वामि मै शरन गही है। जो कछु करनो होय करो परमान वही है ॥ ११ ॥ मरनसमय तुम नाम मंत्र जीवकतै पायो । पापाचारी श्वान प्रान तज अमर कहायो || जो मणिमाला लेय जपै तुम नाम निरंतर | इन्द्रसम्पदा लहै कौन संशय इस अंतर || १२ || जो नर निर्मल ज्ञान मान शुचि चारित साधै । अनवधि सुखकी सार भक्ति कूँची नहिं लावै ॥ सो शिववांछक पुरुष मोक्षपट केम उघारे । मोह मुहर दिन करी मोक्ष मंदिरके द्वारे ||१३|| शिवपुर केरो पंथ पापतमसों अतिछायो । दुखसरूप बहु कूपखाडसों बिकट बतायो । खामी सुखसों तहां कौन जन मारग लागें । प्रभुप्रवचनमणिदीप जोतके आगैं आगैं ॥१४ ॥ कर्मपटलभूमाहिं दबी आतमनिधि भारी । देखत अतिसुख होय विमुखजन नाहिं
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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