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* ४५४ वृहज्जैनवाणीसंग्रह जतन करीजै, परिहरिये परपीड़ा । मूर्ख होय जिन आप च-4 धायो, ज्यौं कुसियाला कीड़ा ॥१॥ ज्यौं कुसियाला अपनी । लाला, फंदति आपोआप । त्यौं तू आला विकलपमाला, बंधति पुनरु पाप । पुनरु पाप दुवै दिनबंधन, लोकशिखर । किम जावै । थिर चर होय चहूंगति भीतर, रह्यो चिदानंद छावै॥ चितमैं चेत चमक्वत्त नाही, साथि सरूपी कूड़ा इंद्री पंचतणे वसि पड़करि, विषय विनोदां बूड़ा। विषय विनोद * आप विरोध्या, जात निगोद अपार । तहँ काल अनंता दुःख ।
सहता एकलडौ निरधार। एकलडौ निरधार निरंतर, जामन मरन करतौ । कर्मविपाकतणै बसि पडियौ, फिर फिर
दुख सहतौ ।। बरजै कौन स्वयंकृत कर्महिं योहि अनादि । * सुभावै । बांछित कहौ सुक्ख किमि पावै, दंसणतणौ अभावै ।
॥३॥दसण गुण विन जात जिके दिन, सो दिन धिक। धिक जानि । धन्य सोहि सोहि परभिन्नो, भ्रांति न मन-1 महिं आनि ॥ भ्रांति सुमिथ्यादृष्टीलच्छन, संशयरहित सुदिष्टी । यौं जाने विन गयौ गहीजै, पद पाकै परमिष्टी ।। ए दुइ भेद जिनागम कहिया, ते मनमैं अवधारै । सुद्ध सुसम्यकदरसन कारन, मिथ्यादृष्टि निवारै ॥४॥ मिथ्याती। मुनिवर अवर सु तरुवर, सह कलेश अनेक । तप तप्यो न । तपियौ, खप्यौ न खपियौ दोऊ रहितविवेक ॥ दोऊं रहितविवेक जीव इक, कर्म बँधै इक छोड़े। आस्रव बंध उदय नहिं समझत, क्यौंकर कर्महिं तो.॥ दंसण-णाण-चरण-*