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________________ K HAR * www wwwwwwwwww - - -5-9-7-5- -* वृहज्जैनवाणीसंग्रह ४५३ । * सो जानत केवलज्ञांनी ॥ ज्ञानी विना दुख कौन जाने, ज गत-वनमें जो लह्यो । जरजन्ममरणस्वरूप तीछन त्रिविध दा-१ वानल दह्यो । जिनमतसरोवरशीतपर अब, बैठ तपन बुझायं । हो। जिय मोक्षपुरकी बाट बूझौ, अब न देर लगाय हो॥1 यह नरभव पाय सुज्ञानी । कर कर निजकारज प्रांनी ॥ ति यंचयोनि जब पावै । तब कौन तुझे समझावै ॥ समुझाय * गुरु उपदेश दीनो, जो न तेरे उर रहै । तो जान जीव अ भाग्य अपनो, दोष काहूको न है । सूरज प्रकाशै तिमिर । नाश, सकल जगको तम हरै। गिरि-गुफा-गर्भ-उदोत होत *न, ताहि भानु कहा करै ।।७। जगमाहिं विषयवन फूल्यो। मनमधुकर तिहिविच भूल्यो॥ रसलीन तहां लपटान्यो। १. रस लेत न रंच अधान्यो। न अघाय क्यों ही रमै निश दिन, एक छन भी ना चुकै । नहिं रहै बरज्यो वरज देख्यो, । बार बार तहां ढुकै ॥ जिनमतसरोज-सिधांतसुंदर, मध्य । याहि लगाय हो । अब 'रामकृष्ण' इलाज याकौ, किये ही * सुखपाय हो ॥८॥ - २३७-जकडी जिनदासकृत। ___ राग आसासिंधु। थिर चिर देवा गधणर सेवा, कर गुनमाला ज्ञान । थिर * चिर जीवा भरमनि-भमता, करि करुना परिनाम ॥ करि । * करनापरिनाम सु जता, गुणकरि सबै समाना। कर्मतणीक थिति घटि बधि दीसै, निश्चय केवलज्ञाना ।। यौँ जाने बिनु । - - ---- -
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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