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________________ R- KARKK R A -5 । ५१२ वृहज्जैनवाणीसंग्रह रूढ गूढ निज आतम, शुधउपयोग विचारा हो। कबधों । ॥५॥ आप तरहिं अवरनकों तारहि, भवजलसिंधु अपारा । हो। दौलत ऐसे जैनजतीको, नितप्रति ढोक हमारा हो । कबधों ॥६॥ ३१३-राग खमाच। * श्रीगुरु हैं उपगारी ऐसे, वीतराग गुनधारी वे। श्रीगुरु० * टेक ।। स्वानुभूति-रमनी सँग कीड़े, ज्ञानसंपदा भारी वे॥ * श्रीगुरु० ॥१॥ ध्यानपींजरामैं जिन रोक्यो, चितखग चंचल * चारी वे ॥श्रीगुरु ॥२॥ तिनके चरनसरोरुह ध्यावै, भागचंद १ अघटारी वे ॥ श्रीगुरु ॥३॥ ३१४-राग मल्हार लूमझूम बरसै बदरवा, मुनिवर ठाड़े तरुवरतरवा ॥ १ लूमझूम ।। टेक ॥ कारीघटा तसी वीज डरावै, वे निधड़क * मानों काठ पुतग्वा ||लूमझूम० ॥१॥ बाहरको निकसै ऐसेमैं बड़े बड़े घरहू गलि गिरवा । झंझावात वहै अति सियरी, वेन हिलै निजबलके धरवा ॥ लूमझूम ॥२॥ देख उन्हें जो (कोई) आय सुनाएँ, ताकीतो करहूं न्योछरवा । सफल होय शिर पायपरसिक, बुधजनके सब कारज सरवा |लूम ( ३१५) * वनमै नगन तन राजै, योगीश्वर महाराज टेका। इक तो । दिगंवर स्वामी, दूजो कोई नहिं साथ ॥ वनमैं ॥१॥ पांचों 1 महाव्रतधारी परिसह जीतै बहु भाँत ॥ वनमैं ॥२॥ जिनने । R -SKAR
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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