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बृहज्जैनवाणीसंग्रह
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||१|| परकरिकै जु अचित्य भार. जुगको अति भारो । सो एकाकी भयो वृषभ कीनों सितारो ॥ करिन सके जोगिंद्र तवन मैं करिहौताको । भानु प्रकाश न करै दीप तमहरै गुफाको ||२|| स्तवनकरनको गर्भ तज्यो सकी बहु ज्ञानी । मै नहि तजैौ कदापि स्वल्पज्ञानी शुभध्यानी । अधिक अर्थको कहूं यथाविधि बैठि झरोके । जालांतरधरि अक्ष भूमिधरकों जु विलोकै ||३|| सकल जगतकों देखत अर सबके तुम ज्ञायक | तुमको देखत नाहि नाहिं जानत सुखदायक ॥ हौ किसाक तुम नाथ और कितनाक बखाने । तातें श्रुति नहिं बनै असक्ती भये सयान || ४ || बालकवत निजदोषपथकी इहलोक दुखी अति । रोगरहित तुम कियो कृपाकरि देव भुवनपति ॥ हित अनहितकी समझिमांहि हैं मंदमती हम | सब प्राणिनके हेत नाय तुम. बालवैद सम ॥५॥ दाता हरता नाहि भानु सबकौ वहकावत । आजकालके छलकर नितप्रति दिवस गुमावत ॥ हे अच्युत जो भक्त नमैं तुम चरनकमलकों । छिनक एकमें आप देत मनवांछित फलको ॥ ६ ॥ तुमसों सन्मुख रहे भक्तिसौं सो सुख पावै । जो सुभावतै विमुख आपतें दुखहि बढावै ॥ सदा नाथ अवदात एकद्युतिरूप गुसांई । इन दोन्योंके हेत स्वच्छ दरपणवत झांई ||७|| हैं अगाध जलनिधी समुदजल है जि - तनों ही । मेरू तुंगसुभाव सिखरलौं उच्च भन्यो ही ॥ वसुधा अर सुरलोक एहु इसभांति सई है। तेरी प्रभुता देव भुव
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