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________________ *SARKARK-45-HI K ARKe* wwwwwwwwww vu Vuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuu * १४२ हज्जैनवाणीसंग्रह शी देव रैन दिनकू नहिं बाधित । दिवस रात्रि भी छ । • आपकी प्रभा प्रकाशित ॥ लाघव गौरव नाहिं एकसो रूप । तिहारों। कालकलाते रहित प्रभूसू नमन हमारो ॥ ३७॥ ॥ * इहविधि बहु परकार देव तव भक्ति करी हम । जाचूं वर । न कदापि दीन है रागरहित तुः ॥ छाया बैठत सहज वृक्षके नीचे है है। फिर छायाकों जाचत यामैं प्रापति क्वै । । है ॥ ३८ ॥ जो कुछ इच्छा होय देनकी तौ उपगारी । यो । । बुधि ऐसी करूं प्रीतिसौं भक्ति तिहारी ॥ करो कृपा जिन-1 * देव हारे परि है तोषित । सनमुख अपनो जानि कौन पंडि त नहिं पोषित ॥ ३९ ॥ यथाकथंचित भक्ति रचै चिनईजन केई । तिनकू श्रीजिनदेव मनोवांछित फल देही । फुनि । विशेष जो नमत संतजन तुमको ध्यावै । सो सुख जस। 'धन-जय प्रापति है शिवपद पावै ॥ ४० ॥ श्रावक माणि* कचंद सुबुद्धी अर्थ बताया। सो कवि 'शांतीदास' सुगम- । * करि छंद बनाया । फिरि फिरिकै ऋषि रूपचंद ने करी। प्रेरणा । माला स्तोतर विषापहारकी पढ़ो भविजना ॥४१॥ ६७-जिनचतुर्दिशीतका।। श्रीलीलायतनं महीकुलगृहं कीर्तिप्रमोदास्पदं वाग्देवीर* तिकेतनं जयरमाक्रीड़ानिधानं महत् । स स्यात्सर्वमहोत्सवै* कभवनं या प्रार्थितार्थपदं प्रातः पश्यति कल्पपादपदल- 1 च्छायं जिनाघ्रिद्वयं ॥ १ ॥ शांतं वपुः श्रवणहारि वचश्चरित्रं । * सर्वोपकारि तवं देव ततः श्रुतज्ञाः । संसारमारवमहास्थलरु* 5 * 22 *
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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