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________________ XKAKKAKKAR वृहज्जैनवाणीसंग्रह २२६ mammam vvvvvvvvvvvvv लोकभीतर सासते, सुर असुर नर पूजा करै। तिन भवनकों, । हम अर्थ लेकै, पूजि हैं जगदुख हरें ॥४॥ ओं ह्रीं त्रैलोक्यसबंध्यष्टकोटिषट्पंचाशलक्षसप्तनवतिसहस्रचतुःशतकाशीतिअकृत्रिमजिनचैत्यालयेभ्यो पूर्णाध्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥४॥ * दोहा--अब वरणों जयमालिका सुनो भव्य चितलायं । जिनमंदिर तिहुँलोकके, देहु सकल दरसाय ॥ १॥ पद्धरि छंद-जय अमल अनादि अनंत जान । अनिमित । जु अकीर्तम अचल थान ॥ जय अजय अखंड अरूपधार । षटद्रव्य नहीं दीसे लगार ॥२॥जय निराकार अविकार। * होय । राजत अनंत परदेश सोय ॥जे शुद्ध सुगुण अव गाह पाय । दशदिशामाहिं इहविध लखाय ॥ ३ ॥ यह * भेद अलोकाकाश जान । तामध्य लोक नभ तीन मान ॥ * स्वयमेव बन्यो अविचल अनंत । अविनाशि अनादि जु कहत संत ।। ४ ।। पुरषा अकार ठाडो निहार । कटि हाथ। धारि द्वै पग पसार । दच्छिन उत्तरदिशि सर्व ठौर । राजू जु सात भाख्यो निचोर ।। ५ ॥ जय पूर्व अपर दिश घाटबाधि । सुन कथन कहूं ताको जुसाधि | लखि श्वभ्रतलै। राजू जु सात । मधिलोक एक राजू रहात ॥६॥ फिर ब्रह्मसुरग राजू जु पांच । भूसिद्ध एक राजू जु सांच ॥ दश * चार ऊंच राजू गिनाय ।षद्रव्य लये चतुकोण पाय ।। ७I . तसु वातवलय लपटाय तीन । इह निराधार लखियो प्रवीन ॥ सनाड़ी तामधि जान खास । चतुकोन एकराजू जु व्यास।। * * *
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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