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________________ बृहज्जैनवाणीसंग्रह सर्वंग सात भंगका उमंग मचा है || परवादियों का सर्व गर्व जिससे पचा है। निर्वान सदनका सोई सोपान जचा है जैवंत० ॥१०॥ अकलंकदेव राजवारतीक बनाया। परमान नयनिक्षेपसों सब वस्तु बताया || श्लोकवारितीक विद्यानंदजी मंडा | गुरुदेवने जडमूल सों पाखंडको खंडा | जै० ||११|| गुरु पूज्यपादजी हुये मरजादके धोरी । सवार्थसिद्धि सूत्रकी टीका जिन्हों जोरी || जिसके लखेसों फिर न रहे चित्तमें भरम | सब जीवको भाषै है स्वपरभावका भरम || जैवंत ० ||१२|| धरसेन गुरुजी हरो भविवृंदकी व्यथा । अग्रायणीय पूर्वमें कुछ ज्ञान जिन्हें था | तिनके हुये दो शिष्य पुष्पदंत भुतवली | धवलादिकोंका सूत्र किया जिस्से मग चली ॥ जैवंत• ॥ १३ ॥ गुरु औरने उस सूत्रका सच अर्थ लहा है । तिन धवल महाघवल जयसुधवल कहा है | गुरु नेमिचंद्रजी हुये धवलादिके पाठी । सिद्धांतके चक्रीशकी पदवी जिन्हों गांठी || जैवंत ० ॥ तिन तीनोंही सिद्धांत के अनुसारसों प्यारे । गोमट्टसार आदि सुसिद्धांत उधारे ॥। यह पहिले सुसिद्धांतका विरतंत कहा है। अब और सुनो भावसों जो भेद महा है || जैवंत ० ॥ १५ ॥ गुणधर मुनीशने पढा था तीजा पराभृत | ज्ञानप्रवाद पूर्वमें जो मेद है आश्रित । गुरु हस्तिनागजीने सोई जिनसों लहा है। फिर तिनसों यतीनायकने मूल गहा है || जैवंत० ॥ १६ ॥ तिन चूर्णिका स्वरूप तिस्से सूत्र बनाया । परमान है हज़ार यों सिद्धांतमें गाया ॥ ति §
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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