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________________ AAAAAAR AAAAAAAA Annanonrn २० वृहज्जैनवाणीसंग्रह उज्ज्वल करि अर्थ पूजि श्रीजिनेन्द्र देवा ॥३॥ जिनजी है तुम अर्ज सुनो भवदधि उतरेवा । जैनदास जन्म सुफल भगति प्रभू एवा ॥४॥ १४--भवानीकृत प्रभाती __ताण्डव सुरपतिने जहां हर्ष भाव धारी {{टेका रुनु रुतु करुनु नूपुर ध्वनि ठुमकि ठुमकि पेंजन पग बुन झुन झुन . कीन छवि लगति अति प्यारी ॥१॥ अ न न न न सार दानि स न न न न न किनरान अ घ घ घ गंधर्व सर्व देत । जहां तारी ॥२॥ पंप पं पग झपटि फं फं फफ न न न न नवं व मृदंग वाजे बीना धुन सारी ॥३॥ अदद द दद विद्याधर दि दि दि दि दि दि देव सकल दास भवानी * ज्यों कहें जिन चरनन बलिहारी ॥४॥ १५-प्रभाती (राग भैरों) उठोरे सुज्ञानी जीव, जिनगुन गावोरे ।उठोरेगाटेक॥ * निशि तो नशाय गई, भानुको उद्योत भयो, ध्यानको ल गावो प्यारे, नींदको भगावोरे ।। उठो रे० ॥ १॥ भववन१ चौरासी वीच, भ्रमतो फिरत मीच, मोहजाल फंद फस्यो जन्म मृत्यु पाबोरे । उठो रे० ॥२॥ आरज पृथ्वीमें आय, उत्तम नरजन्म पाय, श्रावककुलको लहाग, मुक्ति क्यों न * जावोरे ॥ उठो रे० ॥३॥ विषयनि राचि राचि, बहुविधि । के पाप सांचि, नरकनि जाय क्यों, अनेक दुःख पावोरे॥ उठो रे०॥४॥ परको मिलाप त्यागि, आतमके काज लागि,
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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