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________________ १ * १६ ..... बृहज्जनवाणीसग्रह * सतायो । बहुविधि विकलप उपजायो। कछु सुधिबुधि नाहि * रही है। मिथ्यामति छाय गयी है ।। १६ ॥ मरजादा तुम* ढिग लीनी । तामें दोष जु कीनी ॥ मिन भिन अब कैसे कहिये । तुम ज्ञानविष सव पइये ॥ १७ ॥ हा हा ! मैं दुठ। * अपराधी । त्रसजीवनराशिविराधी॥थावरकी जतन न कीनी। * उरमें करुना नहिं लीनी ॥ १८॥ पृथिवी बहु खोद कराई। * महलादिक जागां चिनाई ।। पुन विनगाल्यो जल ढोल्यो। पखातै पवन विलोल्यो ॥१९॥हा हा ! मै अदयाचारी । बहु . हरितकाय जु विदारी ॥ तामधि जीवनके खेदा । हम खाये । धरि आनंदा ॥ २०॥हा हा ! परमाद बसाई। विन देखे। * अगनिजलाई ॥ तामधि जे जीव जु आये। ते हू परलोक * सिधाये ॥ २१ ॥ बीभ्यो अनराति पिसाया । ईधन विन ! सोधि जलायो झाडू ले जागां वुहारी । चिवटि आदिक जीव विदारी ॥२२॥ जल छानिजिवानी कीनी । सो ह पुनि । * डारि जुदीनी ॥ नहि जलथानक पहुंचाई। किरिया विन, * पाप उपाई ॥ २३॥ जल मल मोरिन गिरवायो । कृमिकुल १. बहुधात करायो॥ नदियन विच चीर धुवाये । कोसनके जीव मराये ॥ २४ ॥ अन्नादिक शोधकराई । तामें जु जीवनिसराई ॥ तिनका नहिं जतन कराया। गरियालें धूप डराया । ॥ २५ ॥ पुनि द्रव्य कमावन काज । बहु आरंभ हिंसा साज * कीये तिसनावश भारी। करुना नहि रंच विचारी ॥ २६ ॥ ताको जु उदेय अब आयो। नानाविध मोहि सतायो॥ ** * -*- * * *
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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