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________________ * - * * - वृहज्जैनवाणीसंग्रह * सुबुधि बतावै गुरु, ज्ञान क्यों न लावोरे । उठो रे० ॥५॥ १६-प्रभाती (राग वसंत) * भोर भयो भज श्रीजिनराज, सफल होहिं तेरे सब काज * ॥टेक॥ धन संपति मनवांछित भोग । सब विधि जान बने । संजोग ॥ भोर० ॥१॥ कल्पवृक्ष ताके घर रहै। कामधेनु । नित सेवा बहै। पारस चिंतामनि समुदाय, हितसों आय। मिलै सुखदाय ॥ भोर० ॥ २ ॥ दुर्लभतें सुलभ्य द्वै जाय। रोग शोग दुख दूर पलाय । सेवा देव कर मनलाय, विधन । १. उलटि मंगल ठहराय ।। भोर०॥३॥ डायनि भूत पिशाच ! न छलै । राजचोरको जोर न चलै ॥ जस आदर सौभाग्य प्रकाश, धानत सुरगमुकतिपदवास ।। भोर० ॥ १७-प्रभाती ( राग भैरों) । भोर भयो सब भविजन मिलकर, जिनवर पूजन आवो। * (जावो), अशुभ मिटावो पुण्य बढावो नैनन नींद गमावो । ॥ भोर० ॥ टेक ॥ तनको धोय धारि उजरे पट, शुद्ध । जलादिक लावो। बीतराग छवि हरखि निरखिकै, आग-1 मोक्त गुन गावो ॥ भोर भयो० ॥ १ ॥ शास्तर सुनो भनो । जिनवानी, तपसंजम उपजावो। धरि सरधान देवगुरु आ-1 *गम, सात तत्त्व रुचि लावो ॥ भोग भयो० ॥२॥ दुखित ! * जनकी दया ल्याय उर, दान चारविधि द्यायो। रागरोप तजि भजि जिनपदको, 'बुधजन' शिवपद पायो । भोर० ॥1 * * -- -
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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