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________________ २२ वृहज्जैनवाणीसग्रह १८-आराधना पाठ. ( स्नान करते समय बोलना चाहिये) 1. मैं देव नितअरहंत चाहूं, सिद्धका सुमिरन करौं । मैसूर । गुरुमुनि तीनिपद ये, साधुपद हिरदय धरौ ॥ मै धर्म करुणामयई * जु चाहूं, जहां हिंसा रंच ना। मै शास्त्र ज्ञान विराग चाहूं, * जासुमें परपंचना ॥१॥ चौबीस श्रीजिनदेव चाहू, और। * देव न मन यसै । जिन वीस क्षेत्रविदेह चाहूं, चंदिते पातक नसै ॥ गिरनार शिखर समेद चाहूं, चंपापुर पावापुरी।। + कैलाश श्रीजिनधाम चाहूं, भजत भाजै भ्रमजुरी॥२॥ नव* तत्वका सरधान चाहूं, और तत्व न मन धरौ । षद्रव्यगुन * परजायं चाहूं,ठीक तासों भय हरों।। पूजा परम जिनराज चाहूं, और देव न हूं सदा । तिहुंकालकी मै जाप चाहूं, पाप नहि । लागै कदा ।। ३ ।। सम्यक्त दर्शन ज्ञान चारित, सदा चाहूं। । भावसों । दशलक्षणी मै धर्म चाहूं, महा हरख उछावसों। । सोलह जु कारन दुख निवारण, सदा चाहूं प्रीतिसों। मैं . चितअठाई पर्व चाहूं, महामंगल रीतिसों ॥ ४ ॥ मैं वेद चारों सदाचाहूं, आदि अन्त निवाहसों। पाये धरमके चार चाहूं, अधिक चित्त उछाहसों ॥ मै दान चारों सदा चाहूं. भवनवशि लाहो लहूं । अराधना मै चारि चाहूं, अन्तमें ये है । ही गहूं ॥५॥ भावना वारह जु भाऊं, भाव निरमल होत । हैं। मै व्रत जु बारह सदा चाहूं, त्याग भाव उद्योत हैं। प्रतिमा दिगंबर सदा चाहूं, ध्यान आसन सोहना । वसु
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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