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________________ *RAKH ARE* २६८ बृहज्जैनवाणीसंग्रह ___ अथ जयमाल छंद भूलना। * महासेन कुलचंद गुणकलाके बंद नहिं निकट आवै कदा मोह मंथी । देखि तुवकांति अतिशांतिताकी सुगति लाजि निजमन स्वपद रहत मंथी ॥ बड़ी छवि छटाधर असित । सो तिमिरहर अहर्निश मंदता लेश नाहीं ॥ कहत 'मनरंग' * निति कर मनरंग जो धेरै मनप्रभू तो चरणमाहीं॥१॥ __ छंद भुजगप्रयात। नमस्ते नमस्ते नमस्ते जिनन्दा। निवारे भली भांतिकै । कर्मफन्दा । सुचन्द्रप्रभू नाथ तो सौ न दूजा। करौं जानिके * पादकी जासु पूजा ॥१॥ लखै दर्श तेरो महादर्श पावै । जो की पूजै तुम्हें आपही सो पुजावै ॥ सुचन्द्र० ॥२॥ जो ध्यावै । * तुम्हें आपने चित्तमांही। तिसै लोक ध्यावै कछू फेर नाहीं॥ * सुचन्द्र० ॥३॥ गहै पंथ तो सो सुपंथी कहावै। महापंथसों । शुद्ध आपै चलावै ।। सुचन्द्र० ॥४॥ जो गावै तुम्हें ताहि । गावें मुनीशा । जो पावें तुम्हें ताहि पावें गणीशा सुचंद्र० । * ॥५॥ प्रभूपाद मांही भयो जोऽनुरागी। महापट्ट ताको * मिलै वीतरागी । सुचंद्र० ॥६॥ प्रभू जो तुम्हें नृत्य करकै । रिझावै । रिझावै तिसे शक्र गोदी खिलावै ॥ सुचंद्र० ॥७॥ घरे पादकी रेणु माथे, तिहारी । न लागैतिसे मोहकी दृष्टि । * भारी॥सुचंद्र०॥८॥लहै पक्ष तो जो वो है पक्षधारी । कहावै । सदासिद्धिको सो विहारी ॥ सुचन्द्र० ॥९॥ नमावै तुम्हें । * सीस जो भावसेरी । नमें तासुको लोकके जीवहेरी सुचंद्र० ।
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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