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________________ बृहज्जैनवाणीसंग्रह ५२६ पींजरा घृणित सप्तधा तनमें ॥ जीव ० ॥ १ ॥ भीतर या सम घिन नहि अनमें निकसै मल अंगनमें ॥ जीव० ||२|| भेदाभेद नहीं पहिचाना | उलक्ष्या पर रूपनमें || जीव० || ३ || विनाशीक दुखदाई ये तन | दीखे साफ हगनमें || जीव ||४|| तो भी नादि मोहका प्रेरया । मानें सुख विषयनमें ॥ जीव॥ यातें 'कुंज' मोह तन छोड़ो। करि सरधा तत्त्वनमें ॥ जीव॥ ( ३६५ ) श्रीवीर जिनवरा तुव चरण आ पड़ा दुःख नाशि सुक्ख देउ मोय भव हरा || टेक || श्रीजिनराज भवन बिच राजें प्रतिमा सरल शांति सुखदाय | भक्ति भाव धरि उरमें भविजन पूजा करें सुरस गुण गाय ॥ प्रेमरस भरा ||श्रीवीर ० ॥ श्री जिनभवन गमन मनुभव अरु जिन बचनामृत श्रवण सुपाय | करे न निज कल्यान आपना तिनका जन्म अकारथ जाय । व्यर्थ अवतरा ॥ श्रीवीर० ||२|| श्री जिन पूजन करो भव्य जन हरो पाप भव भव दुखदाय | क्यों भटको भव 'कुंज' सयाने जिन सम क्यों न सुकतिपद पाय || दुःख क्यों भरा || श्रीवीर ० ॥३॥ AAAAAJ0 ܝ ܐܐ AAAAA ( ३६६ ) भज मन नेम चरण दिनराती ॥ टेक ॥ रसना कसना भज जदुपतिको, भजन करत अघ घाती ॥ १ ॥ जाके भजे कटै दुख दारुण, सुर्गादिक सुख पाती ॥२॥ जाके जन्म कल्यानक माहीं, इंद्रशची गुण गाती ||३|| आप तरण तारणको
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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