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________________ -R R84-5- 252KAKK-4-% ५२८ www wwwwwwwwww वृहज्जैनवाणीसंग्रह भोग मिले उनको मन माफिक मोक्ष गये फिर कर्म नशाई।। आज मुझे परमोत्तम पात्र मिला करि दान जु है सुखदाई ॥ * 'कुंज' कहै शुभ भाव धरो प्रभु फूलमाल गहि मन हरपाई।। ३६२ सर्वसाधु (मुनि) स्तुति ।। श्री सर्वसाधु पग लाग, भव्य अब मोह नींदसे जाग ।।टेक । बहुत कालसे जगमें भटका, मिटा न दिलका अबतक खट का । मिथ्या मति अब त्याग॥ भव्य० ॥१॥ है गुरुवर ये * दीनदयाला, पी इनसे धर्मामृत प्याला। हितके मारग लाग || भव्य० ॥२॥ सुनि उपदेश मुनिनका भविजन, करो। भला भटको न जगत बन । निज रसमें निज पाग ||भव्य * मुनि रवि किरण प्रकाशी दश दिशि, भव्य हृदाम्बुज खिलन * अहर्निशि । अबतो चेतन जाग ।। भव्य०||४॥ शासन सुखद * अजेय तुम्हारा, रहै अनादि निधन सुखकारी । 'कुंज' कुमसे भाग ॥ भव्य० ॥५॥ २३-मोहनींद त्यागोपदेश ।। मोहकी नींद छुड़ावो प्रभूजी ।। टेक ॥ काल अनंत निगोद मंझारी, सहा बहुत दुख भार प्रभूजी ॥ मोहकी० ॥१॥ तहं । * संचय था चर तन धर मर जनम दुःख बहु पाया प्रभूजी। * भोग और उपभोग वस्तुकी, । करि करि इक्छा लुभायो । प्रभूजी ॥ मोहकी ॥शा आतम तत्व नहीं पहिचाना । व्यर्थ । * ही काल गमायो प्रभूजी ॥ मोहकी० ॥५॥ ३६४-देह स्वरूप। जीव मोह्यौ पराये तनमें ॥टेका। पुद्गलनिर्मित हाड़। ---- - - -
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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