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________________ 1 बृहज्जैनवाणीसंग्रह Ann AAAAAA AAAAAJ MA रहं । रतहं कहत मिचारिकै सुनि पूछक दे कांन । पहिले कष्ट बहुत सहे, सो सब गये सुजान ||८८|| धनकी चिन्ता रहतचित, सो सब पूरन होहि । वनिता सुत बसनाभरन, निश्चय मिलि तोहि ॥८९॥ आधि व्याधि दुख नसहि सब, चिन्ता करहु न कोय। देवधर्मपरसादसों, काज सफल सब होय ॥ ९०॥ ४१३ रतत । रतत वरन सुनि पूछक, सकल सुफल तुव काम ।' मनवांछित धनसम्पदा, पै हौ अति अभिराम || ११|| ओ कारज चितवत रहौ, अनायास सो होय । मनमें मति संशय करो, धर्मवृद्धि फल जोय ॥९२॥ शिवहित चाहत तप धरन, तामहं है है सिद्ध । गहो जिनेश्वर कथित तप, ज्यों होंवै सुखवृद्धि ॥९३॥ अथ हंकारादि तृतीय प्रकरण | चौपाई। हंअम । हं अअ वर्न परै जहँ आई। तासु सुनो फल है दुचिताई || सूचत कष्टरु चित्त विनाशं । लोकविषै निरआददरभासं ||२४|| संगर में नहिं जीत दिखावै । उद्यममें नहिं लाभ लहावै । जाहु जहां कछु कारज हेती । सिद्ध न होय तहां तुम सेती ॥९५॥ त्याग करो यह कारज यातें। सेवहु श्रीजिनधर्मसुधा तें । धर्म विना सुखको नहिं लेखा । श्री भगवान कहें जिन देखा ||१६|| रोग निवार अरोग शरीरं । पुष्ट महा बलपौरूष धीरं । चाहत हो परदेश सिधारो | होय मिलाप तहां शुभ सारी ॥९७॥ t
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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