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________________ बृहज्जैनवाणीसंग्रह १५१ अथवा इन देखे कछु नाहिं | यह अनुगामी फल जगमांहि ॥ स्वामी सरयो अपूव काज । मुक्तिसमीप भई मुझ आज || २५ || अब विनवै भूपाल नरेश । देखे जिनवर हरन कलेश || नेत्रकमल विकसे जगचंद्र । चतुर चकोर करण आनंद ॥ युति जलसों यों पावन भयो । पापताप मेरो मिट गयो || मोचित है तुम चरणनमाहिं । फिर दर्शन हूज्यो अव जाहिं || छप्पय छंद । इहिविधि बुद्धिविशालराय भूपाल महाकवि । कियो ललित धुतिपाठ हिये सब समझ सकै नवि || टीकाके अनुसार अर्थ कछू मन मैं आयो । कहीं शब्द कहिं भाव जोड भाषा जस गायो । आतम पवित्रकारण किमपि, बालख्याल सो जानियो । लीज्यो सुधार भूधरतणी, यह विनती बुध मानियो || २७ ॥ इति समाप्त | ६९ - महावीराष्टकस्तोत्र | शिखरिणी यदीये चैतन्ये मुकुर इव भावाश्चिदचितः । समं भांति धौव्यव्ययजनिलसंतोंत रहिताः । जगत्साक्षी मार्गप्रकटनपरो भानुरिव यो महावीरखामी नयनपथगामी भवतु मे ( नः ] ॥ १ ॥ अतामूं यच्चक्षुः कमलयुगलं स्पंदरहितं जनान्कोपापार्थं प्रकटयति वाभ्यंतरमपि । स्फुटं मूर्तिर्यस्य प्रशमितमयी वातिविमला, महावीर० ॥ २ ॥ नम
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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