SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वृहज्जैनवाणीसंग्रह ५७ wwwwwwwwwwwwwww.Journvi ४३-करुणाष्टक। * करुणा ल्यो जिनराज हमारी, करुणाल्यो।टेका। अहो जगतगुरु जगपतीजी, परमानंदनिधान । किंकरपर कीजै दयाजी, दीजै अविचल थान॥ हमारी० ॥१॥ भव । दुखसौं भयभीत हौजी, शिवपद वांछासार। करौ दया मुझ दीनपैजी, भवबंधन निरबार ॥ हमारी० ॥ २॥ परयो * विषम भवकूपमेंजी, हे प्रभु! काढौ मोहि । पतित उधाऔरण हो तुम्ही जी, फिर फिर विनऊँ तोहि । हमारी० ॥३॥ तुम प्रभु परम दयाल होजी, अशरनके आधार । मोहि दुष्ट । दुख देत हैंजी, तुमसों करहुं तुकार । हमारी० ॥ ४ ॥ दुः खित देखि दया करैजी, गांवपती इक होय । तुम त्रिभुव* नपति कर्म जी क्यों न छुडावा मोय । हमारी० ॥ ५॥ मब आताप तबै बुझेजी, जब राबू उर धोय। दया सुधारक सीयराजी, तुम पद पंकज दोय ॥ हमारी०॥६॥ येहि एक मुझ वीनतीजी, स्वामी ! हर संसार । बहुत धन्यौ हूं त्रास। सैंजी, विलख्यो बारंबार ॥ हमारी० ॥ ७॥ पदमनंदिको * अर्थ लैजी, अरज करी हितकाज । शरणागत भूधरतणीजी, राखहु जगपति लाज ।। हमारी० ॥ ८॥ ४४-जिनेंद्र स्तुति। • गीता छंद-मंगलसरूपी देव उत्तम तुमशरण्य जिनेशजी तुम अधमतारण अधम मम लखि मेट जन्मकलेशजी।टेका :
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy