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________________ बृहज्जैनवाणीसंग्रह चतुर्थ अध्याय ! नित्यपूजा संग्रह । ७६ - जिनेन्द्र पंचकल्याणक | पणविवि पंच परमगुरु, गुरुजिनसासनो | सकलसिद्धिदातार सु, विधनाविनासनो | सारद अरु गुरु गौतम, सुमति प्रकासनो | मंगलकर चउ-संघहि, पापपणासनो | पापहि पणासन गुणहि गरुआ, दोष अष्टादश- रहिउ । धरिध्यान करमविनासि केवल ज्ञान अविचल जिन लहिउ || प्रभु पंचकल्याणक विराजित, सकल सुरनर घ्यावीं । त्रैलोक्वनाथ सुदेव जिनवर, जगत मंगल गावहीं ॥१॥ १ । गर्भकल्याणक । १६४ जाके गरभकल्याणक, धनपति आइयो । अवधिज्ञानपरवान सु, इंद्र उठाइयो | रचि नव बारह जोजन, नयरि सुहावनी | कनकरयणमणिमंडित, मंदिर अति बनी ॥ अति बनी पौरि पगार परिखा, सुवन उपवन सोहये । नर नारि सुंदर चतुरमेख सु, देख जनमन मोहये ॥ तहं जनकगृह छहमास प्रथमहिं, रतनधारा वरसियो । पुनि रुचिकवासिनि जननि सेवा, करहिं सब विधि हरसियो || सुरकुंजरसम कुंजर, धवल धुरंधरो । केहरि केशरशोभित, नख सिखसुंदरो | कमलाकलस-न्हवन, दुइदाम सुहावनी | रविससिमंडल मधुर, मीनजुग पावनी ॥ पावनिकनक घट जुगम पूरन, कमलकलित सरोबरो । कल्लोलमालाकुलितसागर,
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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