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वृहज्जैनवाणीसंग्रह १६३ । 1 करो शंभुपिंडीको, तव गुरु रच्यो स्वयंभू भार ॥ वंदन ।
करत पिंडिका फाटी, प्रगट भये जिन चंद्र उदार । सो०॥२॥
श्रीअकलंकदेव मुनिवरसों, वाद रच्यौ जहँ बौद्ध विचार। । तारादेवी घटमें थापी, पटके ओट करत उच्चार ॥ जीत्यो स्यादवादवल मुनिवर, बौद्धवोध तारामद टार । सो०॥३॥ श्रीमत विद्यानंदि जवै, श्रीदेवागमथुति सुनी सुधार। अर्थहेत पहुंच्यो जिनमंदिर, मिल्यो अर्थ तहँ सुखदातार ॥ तव । * व्रत परमदिगम्बरको धर, परमतको कीनों परिहार । सो * ॥४|| श्रीमत मानतुंग मुनिवरपरभूप कोप जब कियौ गँवार।
बंद कियो तालोंमें तवही, भक्तामर गुरु रच्यौ उदार ॥ चक्रे । *श्वरी प्रगट तव बैंक,बंधन काट कियो जयकार ।सो०॥५॥
श्रीमत वादिराज मुनिवरसौं, कहो कुष्टि भूपति जिहँ वार ॥ श्रावक सेठ कह्यो तिहँ अवसर, मेरे गुरु कंचन तनधार।
तब ही एकीभाव रच्यो गुरुतन सुवरणदुति भयौ अपार ।सो० १॥६॥ श्रीमत कुमुदचन्द्र मुनिवरसों, चाद परयो जहँ सभा
मैंझार । तब ही श्रीकल्यानधामथुति, श्रीगुर रचना 'रची । अपार ॥ तव प्रतिमा श्रीपार्श्वनाथकी, प्रगट भई त्रिभुवन ।
जयकार । सो०॥७॥ श्रीमत अभयचन्द्र गुरुसों जब, दिल्ली। पति इमि कही पुकार । कै तुम मोहि दिखावहु अतिशय, कै
पकरौ मेरो मत सार ॥ तब गुरु प्रगट अलौकिक अतिशय * तुरत हरयो ताको मदभार ।
दोहा-विधन हरण मंगल करण, वांछित फलदातार । - 'वृन्दावन' अष्टक रच्यो, करौ कंठ सुखकार ॥ ** - --
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