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________________ Ovuvvvvvvvvvvvvvvvvwww Now wwwwwwwyv ** * ---- १ २३२ वृहज्जैनवाणीसंग्रह र भविमंगल गाये ॥ मंगलमय मंगलकरन शिवपद दायक जानि ।। अहनन करिकै नमू सिद्धसकल उर आनिकै ॥ ओं ही अनंतगुणविराजमानसिद्धपरमेष्ठिन् ! अत्र अबतर अवतर। संवौपटी ओं ह्रीं अनंतगुणविराजमानसिद्धपरमेष्ठिन् ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ। ठः ठः । ओं ह्रीं । * अनंतगुणविराजमान सिद्धपरमेष्ठिन् ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । अथ अष्टकं ( चाल-नंदीश्वरकी ) । उजल जल शीतल लाय, जिनगुन गावत हैं। सब सिद्धनकौं । सुचढाय, पुन्य बढावत हैं । सम्यक्त्व सु छायक जान, यह गुण पइयतु हैं । पूजौ श्रीसिद्धमहान, वलिवलि जइयतु हैं। * ओं ह्रीं णमोसिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिने ( सम्मत्त, णाण, देसण, वीय त्व, सुहमत्त, अवगाहनत्व, अगुरुलधुत्व, अव्यावाधत्व अष्टगुण सहिताय ) जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ करपूर सुकेश रसार, चंदन सुखकारी। पूजों श्रीसिद्ध निहार ! आनंद मनधारी॥ सब लोकालोक प्रकाश, केवलज्ञान जगौ।। * इह ज्ञान सुगुण मनभास, निजरस मांहिंपगौ ॥ चंदनं ।। *मुक्ताफलकी उनमान, अच्छित धोय धरे। अक्षयपद प्रापति जान,पुन्यभंडार भरै ॥ जगमें सुपदारथ सार, ते सब दरसावै ।। * सो सम्यकदरसन सार, यह गुण मन भावे ।। अक्षतान् ॥ । का सुंदर सुगुलाव अनूप, फूल अनेक कहे । श्रीसिद्ध सु पूजत * भूप, बहु विधि पुन्य लहे। तहां वीर्य अनंतौ सार, यह गुण । मन आनौ । संसार-समुदतै पार, कारक प्रभु जानौ ॥पुष्पा फैनी गोजा पकवान, मोदक सरस बने। पूजों श्रीसिद्ध
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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