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________________ २३३ vvvvvvvvvvvvvvvvvvvvv Muvvvvvvvvvvvvvvvv RAN *KAHANI वृहज्जैनवाणीसंग्रह महान, भूख-विथा जुहने ॥ झलकै सब एकहि बार, ज्ञेय कहे । जितने । यह सूक्षमता गुण सार, सिद्धनकौं पूजौं । नैवेद्य॥ 1. दीपककी जोति जगाय, सिद्धनकौं पूजौं। कर आरंति सनमुख जाय, निरभय पद हूजौं ॥ कछु घाटि न बाधिप्रमाण, गुरुलघु। * गुन राखौ हम शीस नवावत आन तुम गुण मुख भाखौ। दीपं वर धूप सुदशविध लाय, दश दिश गंधवरै । वसु करम जरावत जाय, मानौ नृत्य करै । इक सिद्धमै सिद्ध अनंत, सत्ता। सब पायें । यह अवगाहन गुण संत, सिद्धनके गावै ॥ धूपं । लै फल उत्कृष्ट महान, सिद्धनको पूजौ । लहि मोक्ष परमसुख थान, प्रभु सम तुम हूजौ ॥ यह गुणवाधाकरि हीन, बाधा " नास भई। सुख अव्यावाध सुचीन,शिवसुंदरि सु लई । फलंग जल फल भरि कंचन थाल, अरचन करजोरी । तुम सुनियौ दीनदयाल, विनती है मोरी ॥ करमादिक दुष्ट • महान, इनकौं दूरि कर । तुम सिद्ध महामुख दान, भवभव, दुःख हरौ । अध्ये॥ अथ जयमाला। दोहा--नमौं सिद्ध परमातमा, अदभुत परम रसाल।। तिन-गुण अगम अपार है, सरस रची जयमाल ॥१॥ छन्द पद्धरी--जय जय श्रीसिद्धनकौं प्रणाम । जय शिवसुख-सागरके सुधाम । जय बलि बलि जात सुरेश जान । जय पूजत तनमन हरष आन ॥२॥ जय छायकगुण सम्यक्त्वलीन । जय केवलज्ञान सगुण नवीन । जय लोका
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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