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________________ वृहज्जैनवाणीसंग्रह २३१ लाय || शिर तीनछत्र शोभित विशाल । त्रय पादपीठ मणिजडित लाल ॥ १८ ॥ भामंडलकी छवि कौन गाय । फुनि चँवर दुरत चौसठि लखाय ॥ जय दुंदाभिरव अदभुत सुनाय । जय पुष्पवृष्टि गंधोदकाय ॥ १९ ॥ जय तरु अशोक शोभा भलेय | मंगल विभूति राजत अमेय । घट तूप छजै मणिमाल पाय | घटधूप धूम्र दिग सर्व छाय ॥ २० ॥ जय केतुपंक्ति सोह्रै महान | गंधर्वदेवगन करत गान || सुर जनमत लखि अवधि पाय । तिहँ थान प्रथम पूजन कराय जिनगेहतणो चरनन अपार । हम तुच्छबुद्धि किम लहत पार जय देव जिनेसुर जगत भूप । नमि 'नेम' मँगै निज देहरूप ॥ ओं ह्रीं त्रैलोक्यसंबंध्यष्टकोटिषट्पंचाशलक्षसप्तनवतिसहस्रचतुःशतैकाशीतिअकृत्रिमश्रीजिनचैत्यालयेभ्यो मघं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २३ ॥ तिहुँ जगभीतर श्रीजिनमंदिर, बने अकीतम अति सुखदाय | नर सुर खग करि वंदनीक जे, तिनको भविजन पाठ कराय ॥ धनधान्यदिक संपति तिनके, पुत्रपौत्र सुख होत भलाय ॥ चक्री सुर खग इन्द्र होयकै करम नाश सिवपुर सुख थाय ||२४|| (इत्याशीर्वाद - पुष्पांजलिंक्षिपेत् ) १०० - अथ सिद्धपूजा भाषा । छप्पय - स्वयंसिद्ध जिनभवन रतनमय विंग विराजै । नमत सुरासुरभूप दरश लखि रवि शशि लाजै ॥ चारिशतकपंचास आठ अवलोक बताये। जिनपद पूजनहेत धारि
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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