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________________ wwwwwwwwwwwwwwww हजनवाणीसंग्रह ६५ ।। ४९-शारदास्तवन प्रभाती।' * केवलिकन्ये वाङ्मय गंगे,जगदंवे अघ नाश हमारे। सत्य स्वरूपे मंगलरूपे, मनमंदिरमें तिष्ठ हमारे ॥ टेक ।। जंबू-1 स्वामी गौतम गणधर, हुये सुधर्मा पुत्र तुम्हारे। जगते । स्वयं पार है करके, दे उपदेश बहुत जन तारे ||१|| कुंदकुंद . अकलंकदेव अरु, विद्यानंदि आदि मुनि सारे। तव कुलकुमुद चंद्रमा ये शुभ, शिक्षामृत दे स्वर्ग सिधारे ॥२॥ तूने उत्तम तत्त्व प्रकाशे, जगके भ्रम सब क्षय कर डारे। तेरी ज्योति । निरख लक्षावश, रवि शशि छिपते नित्य विचारे ॥ भवभय पीडित व्यथित चित्त जन,जब जो आए सरन तिहारे! छिन । भरमें उनके तब तुमने, करुणाकरि संकट सब टारे ॥४॥ जबतक विषय कषाय नशै नहि,कर्मशत्रु नहिं जांय निवारे। * तब तक 'ज्ञानानंद' रहै नित, सब जीवनतै समता भारे ॥५॥ . ५०-गुर्वावलि। . • शैर-जैवंत दयावंत सुगुरु देव हमारे। संसारविपम खारसों जिनभक्त उधारे ।।टेक। जिनवीरके पीछे यहां निर्यानके थानी । वासठ वरपमें तीन भये केवलज्ञानी। फिर सौ। वरपमें पांच श्रुतकेवली भये । सांग द्वादशांगके.उमंग रस। - लये ॥. जैवंत० ॥१॥ तिस बाद वर्ष एकशतक और तिरासी । इसमें हुये दशपूर्व ग्यारै अंगके भाषी॥ ग्यारैः महामुनीश ज्ञानदानके दाता । गुरुदेव सोई देहिंगे भविबुंदको साता।। * ** * *
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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