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________________ * RASER- RAK* wwwwwwww वृहज्जैनवाणीसंग्रह * मधि बहत नदी उज्वल सु तोय ॥ ता नदीमध्य ककुंड जान । दोनों तट मंदिर बने मान ॥ ४ ॥ तहँ वैरागी । 1 वैष्णव रहाय । भिक्षाकारण तीरथ कराय ॥इक कोस तहां । यह मच्यो ख्याल । आगै इक बरनदि बहत नाल॥५॥ * तहँ श्रावकजन करते सनान । धो द्रव्य चलत आगै सुजान। फिर मृगीकुंड इक नाम जान । तहँ बैरागिनके बने थान ॥६॥ वैष्णव तीरथ जहँ रच्यो सोइ। वैष्णव पूजत आनंद होइ ॥ आगे चल डेढ़ सु कोस जाव । फिर छोटे पर्वतको । चढाव । ॥ तहँ तीन कुंड सोहैं महान।श्रीजिनके युगमंदिर। बखान ।। मंदिर दिगंबरी दोय जान । श्वेतांबरके बहुते प्रमान ! ॥८॥ जहँ बनी धर्मशाला सुजोय । जलकुंड तहां निर्मल १ सुतोय ॥ तहँ श्वेतांबरगण दिशा जाय । ता कुंडमाहिं । नितही नहाय ॥९॥ फिर आगें पर्वतपर चढाउ । चढि प्रथम । कूटको चले जाउ ॥ तहं दर्शन कर आगै सुजाय । तहँ दु-1 *तिय टोंकका दर्श पाय ॥१०॥ तहँ नेमनाथके चरण जान । फिर हैं उतार भारी महान ॥ तहँ चढकर पंचम टोंक जाय । । अति कठिन चढाव तहां लखाय ॥ ११ ॥ श्रीनेमनाथका मुक्तिथान । देखत नयनों अति हर्षमान ॥ इक विंच चरन युग तहां जान । भवि करत बंदना हर्ष ठान ॥ १२ ॥ * कोउ करते जय जय भक्ति लाइ । कोऊ थुति पढते तहँ सुनाय ।। तुम त्रिभुवनपति त्रैलोक्यपाल । मम दुःख दूर कीजै दयाल । १३ ।। तुम राजऋद्धि न भुगती न कोइ।। * --5-272 *
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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