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________________ ३४८ वृहज्जैनवाणीसंग्रह ........ यह अथिररूप संसार जोइ ॥ तज मातपिता घर कुटुम + द्वार । तज राजसतीसी सती नार ॥ १४ ॥ द्वादशभावन भाई निदान || पशुवंदि छोड दे अभयदान | शेसावनमें दीक्षा सुधार । तप करके कर्म किये सुछार ।। १५ ।। ताही बन केवल ऋद्धि पाय | इंद्रादिक पूजे चरण आय ॥ तहँ समदसरण रचियो विशाल । मणिपंथ वर्णकर अति रसाल ॥ १६ ॥ तहँ वेदी कोट सभा अनूप | दरवाजे भूमि व सुरूप। वसु प्रातिहार्य छत्रादि सार । वर द्वादशि सभा बनी अपार ॥ १७ ॥ करके बिहार देशों मझार । भवि जीव करे भवसिंधु पार ॥ पुन टोंक पंचमीको सजाय | शिवनाथ लह्यो आनंद पाय ॥ १८ ॥ सो पूजनीक यह थान जान | बंदत जन तिनके पाप हान || तहतैं सु बहत्तर कोडि और। मुनि सातशतक सब कहे जोर ॥ १९ ॥ उस पर्वतों सब मोक्ष पाय । सब भूमि सु पूजन योग्य थाय ॥ तहँ देश देश के भव्य आय । वंदन कर बहु आनंद पाय ॥ २ ॥ पूजन कर कीने पाप नाश । बहु पुण्यबंध कीनो प्रकाश ।। यह ऐसो क्षेत्र महान जान । हम करी बंदना हर्ष ठान ॥ २१ ॥ उनईस शतक उनतीस जान । संवत अष्टमि सित फाग मान ॥ सब संग सहित बंदन कराय । पूजा कीनी आनंद पाय || २२ || अब दुःख दूर कीजै दयाल । कहै 'चंद्र' कृपा कीजै कृपाल || मैं अल्पबुद्धि जयमाल गाय । भवि जीव शुद्ध लीज्यो बनाय ॥ २३ ॥
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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