SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ K-MARKKR K ER १८ वृहज्जैनवाणीसंग्रह * नो॥ मणिकनककुंभ निकुंभकिल्विष, विमल शीतल भरि । * धरौं । श्रम स्वेद मल निरवार जिन त्रय धारदे पायनि परौं॥४॥ (मंत्रसे शुद्धजलकी तीन धारा जिनबिंवपर छोड़ना) ___ अति मधुर जिनधुनि सम सुप्राणित प्राणिवर्ग सुभावसों। * बुधचित्तसम हरिचित्त नित्त, सुमिष्ट इष्ट उछावसों । तत्का लइक्षुसमुत्थानासुक रतनकुंभविष भरौं । यमनासतापनिवार । जिन त्रयधार दे पायनि परौं ॥ ५॥ (ऊपरका मंत्र पढ़ इक्षुरसकी धारा देना) निष्टप्लक्षिप्तसुवर्णमददमनीय ज्यों विधि जैनकी। आयुप्रदा बलवुद्धिदा रक्षा, सु यौँ जियसैनकी ॥ तत्कालमंथित, । क्षीर उत्थित, प्राज्य मणिझारी भरौ । दीजै अतुलवल मोहि जिन, त्रयधार दे पायनि परौ ॥६॥ (घृतरसकी धारा देना) ___ शरदभ्र शुभ्र सुहाटकयुति, सुरभि पावन सोहनो। * क्लीवत्वहर बल धरन पूरन, पयसकल मनमोहनो ॥ कृत* उष्ण गोथन समाहृत घटजटितमणिमें भरौ । दुर्वल दशा • मो मेट जिंन त्रयधार दे पायनि परौं ॥७॥ . (दुग्धकी धारा) वर विशदजैनाचार्य ज्यों मधुराम्लकर्कशताधरै । * शुचिकर रसिक मंथन विमंथन नेह दोनों अनुस।। गोद-* घि सुमणिभृगार पूरन लायकर आगै धरौं । दुखदोष कोष निवार जिन त्रयधार दे पायनि परौ ॥८॥ * --- *
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy