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________________ ** KR -NANnnnnnnnnnnnnx har । ५०० वृहज्जैनवाणीसंग्रह रतन अमोलक, रंक पुरष जिम पायो॥ प्रभु० ॥१॥ निर्मल रूप भयो अव मेरो, भक्तिनदी-जल न्हायो॥ प्रभु० ॥२॥ भागचंद अब मम करतलमें,अविचल शिवथल आयो।प्रमु०॥ २७२-राग मल्हार। प्रभु म्हाकी सुधि, करुना करि लीजै ॥ टेक ॥ मेरे इक ! अवलं बन तुम ही, अब न विलंब करीजै ॥प्रभु०॥१॥ अन्य * कुदेव तजे सब मैंने, तिन निजगुन छीजै ॥ प्रभु ॥२॥ * भागचंद तुम सरन लियो है, अब निश्चल पद दीजै ।।प्रभु०॥ ( २७३ ) केवलजोति सुनागीजी, जब श्रीजिनवरकै ॥ केवल० ॥ टेक ॥ लोकालोकविलोकत जैसें, हस्तामल बड़भागीजी ॥ केवल० ॥१॥ हरिचूडामणिशिखा सहज ही, नमत भूमि । * लागीजी ॥ केवल० ॥२॥ समवसरन-रचना सुर कीनी, देखत भ्रम जन त्यागीजी ॥ केवल० ॥३॥ भक्तिसहित । अरचा तब कीनी, परमधरमअनुरागीजी ॥ केवल० ॥ ४ ॥ दिव्य ध्वनि सुनि सभा दुवादश, आनंदरसमें पागीजी ॥ * केवल० ॥५॥ भागचंद प्रभुभक्ति चहत है, और कछू नहिं । * मांगीजी ।। केवल ॥६॥ ( २७४ ) 1 सोई है सांचा महादेव हमारा, जाके नाही रागरोष-मद मोहादिक विस्तारा ।। सोई है ।।टेका जाके अंग न भस्मलिप्त है, नहिं रुण्डनकृतहारा । भूषण व्याल न भाल चंद्र * RRRRRRRR RR*
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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