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________________ v . * - * -*-*-* - * - * -* वृहज्जैनवाणीसंग्रह ५०१ ॥ नहि, शीश जटा नहिं धारा ।। सोई है ॥१॥ जाके गीत। न नृत्य न मृत्यु न, वैल तणो न सवारा। नहि कोपीन । न काम कामिनी, नहि धन धान्य पसारा ।सोई है ॥२॥ । सो तो प्रगट समस्त वस्तुको, देखन जाननहारा । भागचंद । । ताहीको ध्यावत, पूजत वारंवारा ॥सोई है. ॥३॥ ( २७५ ) . । शेष सुरेश नरेश स्टै तोहि, पार न कोई पावै जू ॥शेष । ॥टेका। कापै नपत व्योम विलसत सौं, को तारे गिन लावै । जू ॥ शेषः ॥ १॥ कौन सुजान मेघबूंदनकी, संख्या समुझ । सुनावै जू ॥ शेष ॥२॥ भूधर सुजस-गीत-संपूरन गणपति । से भी नहिं गावै जू ।। शेष ॥३॥ ( २७६ ) स्वामीजी सांची सरन तिहारी ॥ स्वामीजी० ॥ टेक॥ समरथ शांत सकल गुन पूरे, भयो भरोसो भारी॥स्वामीजी ॥१॥ जनमजरा जगवैरी जीते, टेव मरनकी टारी । हमहूको अजरामर करियो, भरियो आस हमारी ॥ स्वामीजी ॥२॥ जनमै मरै धरै तन फिर फिर, सो साहिब संसारी । भूधर परदालिद क्यों दलिहै, जो है आप भिखारी स्वामीजी॥ ( २७७ ) बंदों नेमि उदासी, मद मारवेको। बंदो० ॥टेका रजI मतिसी तिन नारी छारी, जाय भए बनवासी ॥वंदों ॥१॥ हय गय रथ पायक सव छांडे, तोरी ममता फांसी । पंच ।
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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