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________________ बृहज्जैनवाणीसंग्रह ४५ - पार्श्वनाथ स्तुति । सोरठा- पारसप्रभुको नाऊँ, सार" सुधारस ' जगतमै । · मैं बाकी बलिजाऊं, अजर अमरपदमूल यह || || हरिगीता ( १८ मात्रा ) राजत उतंग अशोक तरुवर, पवन प्रेरित थरहरै । प्रभु निकट पाय प्रमोद नाटक, करत मानौ मन हरै । तस फूल गुच्छन भ्रमर गुंजत, यही तान सुहावनी । सो जयो पार्श्व जिनेंद्र पातकहरन जग चूडामनी ॥ २ ॥ निज मरन देखि अनंग डरप्यो, सरन ढूढत जग फिरयो। कोई न राखे चोर प्रभुको, आय पुनि पायनि गिरयौ || यौं हार निज हथियार डारे, पुहुपवर्षा मिस भनी | सो जयो० ॥ ३ ॥ प्रभुअंगनीलउतंगगिरितै, वानि शुचि, सरिता ढली । सो भेदि भ्रमगजदंतपर्वत, ज्ञानसागर में रली ॥ नय सप्तभंग-तरंगमंडित, पापतापविध्वंसनी । सो जयो० ॥ ४ ॥ चंद्राचिंचयछवि चारु चंचल, चमरवृन्द सुहावने। ढोलै निरंतर यक्षनायक, कहत क्यों उपमा बनै | यह नीलगिरिके शिखर मानों, मेघझरि लागी घनी । सो जयो० ॥ ५ ॥ हीरा जवाहिरखचित बहुविधि, हेमआसन राजये । तहँ जगत जनमनहरन प्रभु तन, नील वरन विराजये। यह जटित वारिजमध्यमाना, नील मणिकलिका बनी । सो जयो० ॥ ६ ॥ जगजीत मोह महान जोधा जगतमें पटहा दियो । सो शुकल - ध्यान - कृपानवल जिन, निकट बैरी वश कियो ॥ www.kkkkk Lu ५६
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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