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________________ . ~ ~ ~ vuWAuru. ~ ~ बृहज्जैनवाणीसंग्रह दोहा-चंदन शीतलता करै, तपत वस्तु परवीन।। जासों पूजों परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥२॥ *ओं ही देवशास्त्रगुरुभ्यः संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्व० ॥२॥ है यह भवसमुद्र अपार तारण, के निमित्त सु विधि ठई।। * अति दृढ परमपावन जथारथ भक्ति वर नौका सही। उज्वल * अखंडित सालि तंदुल पुंज धरि त्रयगुण जजू । अरहंत० ॥ दोहा-नंदुल सालि सुगंधि अति, परम अखंडित वीन। जासों पूजौं परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥३॥ * ओं ही देवशास्त्रगुरुभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। जे विनयवंत सुभव्य उर अंबुज प्रकाशन भान हैं। जे । एकमुख चारित्र भाषत त्रिजगमाहिं प्रधान हैं । लहि कुंद कमलादिक पहुप, भव २ कुवेदनों बचूं ।। अरहंत० ॥ * दोहा-विविधांति परिमलसुमन, भ्रमर जास आधीन। जासों पूजौं परमपद, देवशास्त्र गुरुतीन ॥४॥ 1 ओं ही देवशास्त्रगुरुभ्यः कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्व० ॥४॥ * अतिसवल मदकंदर्प जाको क्षुधाउरग अमान है । दुस्सह * भयानक तास नाशनको सुगरुड' समान । उत्तम छहों । रसयुक्त नित, नैवेद्यकरि घृतमें पचूं । अरहंत० ॥५॥ * दोहा-नानाविध संयुक्तरस, व्यंजन सरस नवीन । ___जासों पूजौं परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥५॥ *ओं ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य नि० ॥५॥ *RKAR5- 2 RR
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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