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________________ Jnwr AvvvvvvNEW १६४ बृहज्जैनवाणीसंग्रह * ओं ह्रीं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रादिगुणविराजमानाचार्योपाध्यायस- 4 । र्वसाधुभ्यो महाधु निर्वपामीति स्वाहा। ८२-अथ देवशास्त्रगुरुकी भाषा पूजा । अडिल्ल-प्रथमदेव अरहंत सुश्रुत सिद्धांतजू । गुरु निर* ग्रंथ महंत मुकतिपुरपंथजू । तीनरतन जगमांहि सो ये भवि। ध्याइये। तिनकी भक्तिप्रसाद परमपद पाइये ॥ १॥ दोहा-पूजौं पद अरहंतके, पूजौ गुरुपदसार।। ___ . पूजौं देवी सरस्वती, नितप्रति अष्टप्रकार ॥२॥ ओं ही देवशावगुरुसमूह ! अत्रावतरावतर ! संबौषट् । ओं ही देवशास्त्रगुरुसमह अन्न तिष्ट तिष्ट ठः ठः। * ओं ह्रीं देवशास्त्रगुरुसमूह अत्र मम सत्रिहितो भव भव । वषट् । गीता छंद। । सुरपति उरगनाथ तिनकर, वंदनीक सुपदभमा । अति शोभनीक सुवरण उज्वल, देखि छवि मोहित सभा॥ *वर नीर क्षीरसमुद्रघटभरि, अग्र तसु बहुविधि नचूं। १ अरहंत श्रुतसिद्धांत गुरु निरग्रंथ नित पूजा रचूं ॥१॥ दोहा-मलिन वस्तु हरलेत सब, जल स्वभाव मलछीन । जासों पूनौं परमपद देवशास्त्रगुरु तीन ॥१॥ Lओं ही देवशालगुरुभ्यो जन्मजरामृत्यविनाशनाय जलं निर्वः ॥१॥ जे त्रिजग उदर मझार पानी, तपत अति दुद्धर खरे। । तिन अहितहरन सुवचन जिनके, परम शीतलता भरे ॥ तसु । * भ्रमर लोभित घाण पावन, सरस चंदन घसि सचूं ॥अरहंत०॥ AAKAARAKSHMISHRA
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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