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________________ AAAAAA 1911 १६६ वृहज्जैनवाणीसंग्रह जे त्रिजगउद्यम नाश कीने, मोहतिमिर महाबली । तिहिक कर्मघाती ज्ञानदीपप्रकाशजोति प्रभावली ! इहभांति दीप । प्रजाल कंचनके सुभाजनमैं खचूं । अरहंत० ॥६॥ दोहा-स्वपर प्रकाशक जोति अति, दीपक तमकरि हीन। * जासों पूजौं परमपद, देवशास्त्र गुरु तीन ॥६॥ .. । ओं ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो मोहांधकारविनाशनाय दीपं निव० ॥६॥ जो कर्म-ईधन दहन अग्निसमूह सम उद्धत लसै। वर धूप तासु सुगंधताकरि, सकल परिमलता हँसे ।। इहभांति । धूप चढाय नित भवज्वलनमांहि नहीं पचूं । अरहंत० ॥ दोहा-अग्निमांहि परिमलदहन, चंदनादि गुणलीन। जासों पूजौं परमपद देव शास्त्र गुरु तीन ॥७॥ * औं ही देवशास्त्रगुरुभ्योऽष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ॥७॥ * लोचन सु रसना धान उर, उत्साहके करतार हैं । मोपैन । उपमा जाय वरणी, सकलफलगुणसार हैं। सो फल चढावत * अर्थपूरन, परमअमृतरस सचूं । अरहंत०॥ दोहा-जो प्रधान फल फलविषै, पंचकरण-रस लीन । जासों पूजों परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥८॥ १ ओं ही देवशास्त्रगुरुभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। * जल परम उज्ज्वल गंध अक्षत, पुष्प चरु दीपक धलं । * वर धूप निरमल फल विविध, बहु जनमके पातक हरूं ॥ इह भांति अर्थ चढाय नित भवि करत शिवपकति मचूं । अरहंत०॥
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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