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________________ vvvvvvvvvvvvvvvvvvv वृहज्जैनवाणीसंग्रह दोहा-सुविधि अर्थ सँजोयफे, अति उछाह मन कीन । जासों पूजों परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥९॥ ओं ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्योऽनर्व्यपदप्राप्तये अश्य निर्वपामीति स्वाहा ॥ अथ जयमाला । * दोहा-देवशास्त्रगुरु रतन शुभ, तीनरतनकरतार। है , भिन्न भिन्न कहुँ आरती, अल्प सुगुणविस्तार ॥१॥ पद्धरि छंद-कर्मनकी त्रेसठ प्रकृति नाशि । जीते अष्टादश । * दोषराशि । जे परम सुगुण हैं अनंत धीर, कहवतके छया लिस गुण गंभीर ॥२॥ शुभ समवसरण शोभा अपार, शत* इंद्र नमत करसीसधार । देवाधिदेव अरहंत देव, बंदों मनर बचतनकरि सु सेव ॥३॥ जिनकी धुनि है ओंकाररूप, निर A अक्षरमय महिमा अनुप । दश अष्ट महाभाषा समेत, लघुए भाषा सात शतक सुचेत ॥४॥ सो स्याद्वादमय सप्तभंग, गण धर गूंथे बारह सु अंग ॥ रवि शशि न हरै सो तम हराय, * सो शास्त्र नमों बहुप्रीति ल्याय॥५॥ गुरु आचारज उवझाय साध, तन नगन रतनत्रयनिधि अगाध । संसारदेह वैराग धार, निरवांछि तपै शिवपद निहार ॥६॥ गुण छत्तिस पच्चिस आठवीस, भवतारन तरन जिहाज ईस। गुरुकी। महिमा वरनी न जाय, गुरुनाम जपों मनवचनकाय ॥७॥ * सोरठा-कीजै शक्ति प्रमान, शक्ति विना सरधा धरै।। । धानत सरधावान, अजर अमरपद भोगवै। #ओं ही देवशास्त्रगुरुभ्यो महाघ निर्वपामीति स्वाहा । *R KAKKARKA*
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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