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________________ - --- -- -- - - - - .vowww -~-www ४८८ बृहज्जैनवाणीसंग्रह * जीव । छाडि धर्मविपयन चित दीव ।। ज्यों सठ कल्पवृक्षको । तोड़ । वृक्ष धतूरेकी भू जोड़ ॥१॥ नरदेही जानो परधान। विसर विषय कर धर्म सुजान ॥ त्रिभुवन इन्द्रतने सुख । भोग । पूजनीक हो इन्द्रन जोग ॥१०॥ चन्द्र विना निशि गज विन दंत । जैसें तरुण नारि विन कंत ॥ धर्म विनात्यों मानुष देह । तातें करिये धर्म सुनेह ॥ ११ ॥ हय गय स्थ। पावक बहु लोग। सुभट बहुत दल चार मनोग ॥ धजा आदि राजा बिन जान । धर्म विना त्यों नरभव मान ॥१२॥ जैसे गंध विना है फूल । नीरविहीन सरोवर धूल ॥ ज्यो । विन धन शोभित नहिं मौन । धर्म विना त्यों नर चिंतौन * ॥१३॥ अरचे सदा देव अरहंत । च. गुरुपद करुणावंत ॥ खरचे दाम घरमसों प्रेम । रुचे विषय सुफेल नरएम॥१४॥ कमला चपल रहै थिर नाहिं । यौवन रूप जरा लिपटाहि ॥ सुत मित नारी नावसंयोग । यह संसार स्वप्नका भोग * ॥१५ । यह लख चित घर शुद्ध स्वभाव । कीजे श्रीजिन धर्म उपाव ।। यथाभाव तैसी गति गहैं । जैसी गति तैसा । * सुख लहै ।।१६।। जो मूर्ख है धर्म कर हीन । विषय अंध रविव्रत नहिं कीन ॥ श्रीजिनभाषित धर्म न गहै । सो निगोद-* को मारग लहै ॥१७॥ आलस मन्दबुद्धि है जास। कपटी । * विषय मन शठ तास ॥ कायरता नहिं परगुण ढकै। सो तिर्यंच योनि लह सकै ॥१८॥ आरत रुद्र ध्यान नित करै।। क्रोध आदि मतसरता धरै । हिंसक वैर भाव अनुसरै।।
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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