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________________ *KAKKARTER AAAAAAA बृहज्जैनवाणीसग्रह ४६३ १ मलगंजन मनअलिरंजन, मुनिजनसरन सुपावन है। पद्मा. सम० ॥टेक॥ जाकी जन्मपुरी कुशंविका सुरनरनागरमावन । है। जास जन्मदिन पूरब षट-नवमास रतन बरसावन है। ॥ पद्मासम० ॥१॥ जा तप-थान पपोसा गिरि सो आत्मध्यान-थिर-थावन हैं। केवल जोत उदोत भई सो, मिथ्यातिमिर नसावन हैं । पनासम० ॥ २ ॥ जाको शासनपचानन सो कुमति-मतंगनशावन है । रागविना सेवकजनतारक, . पै तसु तुषरुष भाव न है । पद्मापा० ॥ ३ ॥ जाकी महि* माके वरननसों, सुरगुरुबुद्धिथकावन है। 'दौल' अल्पमति- 1 को कहबो जिम, शिशुकगिरिंद-धकावन है । पद्मासझ०॥४॥ ( २५३ ) अजित जिन विनती हमारी मानजी, तुम लागे मेरे प्रानजी ।। टेक ॥ तुम त्रिभुवनमें कलपतरोवर, आश भरो भगवानजी ॥ अजितः ॥ १॥ बादि अनादि गयो भव । भ्रमते, भयो बहुत हयरानजी । भागसंजोग मिलै अब दीजै, मनवांछित वरदानजी ॥ अजित० ॥२॥ ना हम मांगें हाथी घोड़ा, ना कछु संपति आनजी । भूधरके उर बसो जगत। गुरु, जबलों पद निरवानजी ।। अजित० ॥ ३ ॥ ( २५४ ) पारस-पद-नख प्रकाश, अरुन वरन ऐसो। पारस टेका। मानो तप, कुंजरके, सीसको सिंदूर पूर, रागरोष काननको-दावानल जैसो॥ पारस० ॥ बोधमई प्रातकाल, * ERSAKS H ARA
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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