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________________ *- --16 --22 nannnnnnnnnnn १४६४ वृहज्जैनवाणीसंग्रह। ताको रवि उदय लाल, मोक्षवधू-कुच-अलेप, कुंकुमाम तैसो।। पारस० ॥ कुशल-वृक्ष-दल उलास, इहिविधि बहुगुण-निवास । भूधरकी भरहु आस, दीनदासके सो । पारस० ॥३॥ ( २५५ ) देखे जिनराज आज, राजरिद्धि पाई । देखे० ॥ टेक ॥ पहुपवृष्टि महाइष्ट देव दुंदुभी सुमिष्ट, शोक करै भ्रष्ट सो. अशोकतरु बडाई ॥ देखे० ॥ १॥ सिंहासन झलमलात, तीन छत्र चितसुहात, चमर फरहरात मनों, भगति अति बढाई ॥ देखे० ॥ २॥ द्यानत भामंडलमें, दीसे परजाय * सात, यानी तिहुँकाल झरे, सुरशिवसुखदाई ॥ देखे० ॥ ( २५६ ) 1 चंदजिनेश्वर नाम हमारा, महासेनसुत जगत पियारा ॥ चंद० ॥टेका। सुरपति नरपति फनिपति सेवत, मानि महा उत्तम उपगारा । मुनिजन ध्यान धरत उरमाही, चिदानंद । । पदवीका धारा ॥ चंद° ॥१॥ चरन सरन बुधजन जे आये, तिनपाया अपना पद सारा ॥ मंगलकारी भवदुखहारी, स्वामी अद्भुत उपमावारा ॥ चंद ० ॥२॥ ( २५७ ) • उरग-सुरग-नरईश शीस जिस, आतपत्र त्रिधरे । कुंदकुसुम सम चमर अमरगन, दोरत मोद परे ॥ उरगला टेक ॥ तरु । * अशोक जाको अवलोकत, शोक थोक उगरे । पारजात संता नकादिके, वरसत सुमन वरे ॥ उरग० ॥१॥ सुमणि विचित्र ।
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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