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________________ *-*-* - * *- * * वृहज्जैनवाणीसंग्रह ४६५ पीठ अंबुजपर राजत जिन सुथिरे । वर्णविगति जाकी धुनिको * सुनि, भवि भवसिंधु तरे। उरग० ॥२॥ साढेवारहकोडिजा तिके, बाजत तूर्य .खरे । भामंडलकी दुति अखंडने, रवि । शशि मंद करे ।उरग ॥३॥ ज्ञान अनंत अनंत दर्शवल, शर्म अनंत भरे । करुणामृतपूरित पद जाके, दौलत हृदय धरे॥ ( २५८ ) हमारी बीर हरो भव पीर। हमारी० ॥ टेक ॥ मै दुख । पतित दयामृतसर तुम, लखि आयो तुम तीर । तुम परमेश 1 मोखमगदर्शक, मोहदवानलनीर ॥ हमारी०॥१॥ तुम विन हेत जगतउपकारी, शुद्ध चिदानंद धीर । गनपतिज्ञानसमुद्र न लंघे, तुमगुनसिंधु गहीर ॥ हमारी० ॥२॥ याद नहीं मैं । विपद सही जो धर धर अमित शरीर । तुमगुन चिंतत नशत दुःख भय, ज्यों धन चलत समीर ॥ हमारी०॥३॥ कोटिवारकी अरज यही है, मैं दुख सहूं अधीर । हरहु वेदनाफंद दौलको, कतर करम-जंजीर ।। हमारी० ॥४॥ ( २५६ } ___ अरि-रज-रहसि हनन प्रभु अरहन, जैवतो जगमें । देव । * अदेव सेव कर जाकी, धरहिं मौलि पगमें अरिरज०॥टेक जा तन अष्टोत्तर सहस्र लक्खन लखि कलिल शमै । जा। + वच-दीपशिखा मुनि विचरै शिवमारगमें ।। अरिरज०॥१॥ जास पासतै शोकहरनगुन, प्रगट भयो नगमें। व्याल मराल कुरंग सिंघको, जातिविरोधगमें ।। अरिरज० ॥२॥ * Rese- --
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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