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________________ ~W ४६६ wwwwwU 4. 4 JUNYU wwwww जा- जस- गगन उलंघन कोऊ, क्षम न मुनीगन में । दौल नाम तसु सुरतरु है या, भव मरुथलमगमें || अरिरज || ३ | ( २६० ) हे जिन मेरी, ऐसी बुधि कीजै । हे जिन० ॥ टेक ॥ रागरोषदावानलते वचि, समतारसमें भीजै ॥ हे जिन० ॥ ॥ परमें त्याग अपनपो निजमें, लाग न कबहू छीजै । हे जिन० ||२|| कर्म कर्मफलमाहि न राचे, ज्ञानसुधारस पीजै ॥ हे जिन ॥३॥ मुझ कारजके तुम कारन वर, अरज दौलकी लीजै ॥ हे जिन ||४|| बृहज्जैनवाणीसंग्रह 11 wwwww ( २६१ ) शामरियाके नाम जपेतैं छूट जाय भव भामरिया | शामरिया के ० || टेक || दुरित दुरित पुन पुरत-फुरत गुन, आतमकी निधि आगरियां । विघटत है पर दाहचाह झट, गटकत समरसगागरिया | शामरिया के ० ॥ १ ॥ कटत कलंक करमकलसायनि, प्रगटत शिवपुरडागरिया | फटत घटायनमोह छोह हट, प्रगटत भेदज्ञानधरियां || शाम° ॥ २ ॥ कृपाकटाक्ष तुमारीतैही, युगलनागविपदा टरिया । धार भए सो मुक्तिरमावर, दौल न मैं तुव पागरियां || शामरियाके० ॥ ( २६२ ) शिवमग दरसावन रावरो दरस || शिवमग॥ टेक ॥ परपदचाहदा हगदनाशन, तुमवच भेषजपान सरस | शिव मग० ॥ १ ॥ गुण चितवत निज अनुभव प्रगटै, विघटै -
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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