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________________ 8 वृहज्जैनवाणीसंग्रह AAAAAAAAM ओं ह्रीं श्राशांतिनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव । वषट् पंचम उदधि तन जल निर्मल, कंचन - कलश भरे हर-पाय । धार देत ही श्रीजिन सन्सुख, जन्मजरामृत दूर पलाय || शांतिनाथ पंचम चक्रेश्वर, द्वादश मदन तनौ पद पाय । जाके चरणकमलके पूजैं, रोग-शोक-दुख-दारिद जाय । भों ह्रीं श्रीशांतिनाथ जिनेंद्राय जमन्जरारोगविनाशनाय, जल निर्वपा० ॥ मलयागिरिचंदन कदलीकंदन, कुकुम जलके संग घिसाय । भवआतप विनाशनकारन, चरं चरन सबैसुख पाय । शांतिनाथ० || गंध || 105Y उज्वल अच्छित पुंज मनोहर, शशिमरीच तिस देख लजाय । पुंजकिये तुम आगे श्रीजिन, अक्षयपदके हेत वनाय । शांतिनाथ || अक्षतं ॥ सुरपुनीत अथवा अवनीके, कुसुम मनोहर लिये मंगाय । भेंटधरत तुमचरननके ढिग, ततखित कामवाण नसिजाय || शांतिनाथ० || पुष्पं ॥ भांति भांतिके सद्य मनोहर, कीने मैं पकवान सम्हार । भरिथारी तुम सनमुख लायो, क्षुधावेदनी रोग निवार । शांतिनाथ० || नैवेद्यं ॥ घृतसनेह कर्पूर लायकर, दीपक ताके देत प्रजार ! जगमग जोति होति मंदिर में, मोह-अंधकों देत सुटार।शांतिनाथ० || दीपं ॥ देवदार कृष्णागरुचंदन, तगर कपूर सुगंध अपार । K --+++
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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