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________________ ४७० बृहज्जैनवाणीसंग्रह ताके जु बखान ||२९|| विजयारध गिरि उत्तम ठौर । कांचीपुर पत्तन शिरमौर । राजा तहँ अपराजितं बीर । विजया तासु प्रिया गंभीर || ३० || ताको पुत्र अरिंजय नाम | तिन यह आय कियो परनाम | कंचनमय सिंहासन आन । तापर नृप बैठो सुखखान || ३१ ॥ व्योम पटल विनशत लख संत । उपज्यो चित वैराग महंत | राज्य पुत्रको दियो बुलाय | आप लई दीक्षा शुभ भाय ||३२|| सही परीषह दृढ़ चित धार । तातें कर्म भये अति छार ॥ घाति घातिया केवल भयो । सिद्धि बुद्धि सो पद निर्मयो ||३३|| रानीने व्रत कीनो सही । देवदेह दिव अच्युत लही ॥ यहां सु सुख भुग-' ते अधिकाय । तहांसों आय भयो नरराय ||३४|| राजऋद्धि पाई शुभसार | फिर तपकर विधि कीने छार ॥ तहांसों मुक्तीपुरको गये। ऐसो तिन व्रतको फल लयो || ३५ ॥ ऐसो व्रत पालै जो कोइ | स्वर्ग मुक्तिपद पावै सोइ । चिनयसागर गुरु आज्ञा कारी । हरि किल पाठ चित्तमें धरी || ३६ || तब यह कथा करी मन ल्याय । यथा शास्त्रमें वरणी आय || विधिपूर्वक पालै जो कोय । ताको अजर अमर पद होय || ३७ || २४३ - रत्नत्रयव्रत कथा । दोहा - अरहनाथको बंदिके, बंदों सरस्वति पांय रत्नत्रयत्रतकी कथा, कहूँ सुनो मनलाय ॥१॥ चौपाई - जंबूद्वीप भरत शुभ खेत । मगधदेश सुख संपति
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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